सिद्धार्थ उपनिषद Page 04
*****( साधना - सूत्र )*****
सिद्धार्थ उपनिषद Page 04
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परमात्मा तक पहुंचने के लिए भक्ति एकमात्र मार्ग है। अन्य सभी मार्ग सहायक मार्ग हैं। जैसे गंगा की अनेक सहायक नदियाँ हैं , वैसे ही कर्म , तन्त्र , हठ , ज्ञान , ध्यान, सान्ख्य , समाधि आदि सहज भक्ति योग के सहायक योग हैं। पलटू साहब तो यहाँ तक कहते हैं -- " एक भक्ति मैं जानूँ , और झूठी सब बात । "
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अध्यात्म में जितना ऊँचा बढ़ते जाते हैं , गिरने की सम्भावना उतनी ही बढ़ती जाती है । जैसे कोई समतल सड़क पर चले , तो
गिरने की सम्भावना कम होती है , लेकिन पहाड़ पर चढ़ने वाले के लिए गिरने की सम्भावना बढ़ जाती है। ओशोधारा में 27 तल के कार्यक्रम हैं।जैसे - जैसे ऊपर के तलों की ओर हम बढते हैं , गिरने की सम्भावना बढ़ती जाती है। कई लोग 12 वें तल के कार्यक्रम कैवल्य समाधि में ' अह्म ब्रहास्मि ' के अनुभव के कुछ दिनों के बाद ज्ञान के अहन्कार से ग्रस्त हो योगभ्रष्ट हो जाते हैं , और गुरु - गोविन्द से टूट जाते हैं। इस भटकाव से बचने का एकमात्र उपाय सम्यक् दृष्टी और सुमिरन है।
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2012 ई. में विनाश की सम्भावना से विश्व की लगभग एक चौथाई आबादी डरी हुई है। कोई माया कैलेंडर की समाप्ति को कारण बता रहा है ,कोई लम्बे मेटिओराइट के टकराने की बात कर रहा है , कोई तीसरे विश्वयुद्ध की सम्भावना का तर्क दे रहा है। लेकिन ऐसा कुछ भी होनेवाला नहीं है। जिसकी दुनिया है , वह इसकी सुरक्षा करना भली-भांति- जानता है। ' दयारे सुबह - शामे देहर है जिसके इशारे पर , मेरी गफलत तो देखो , मैं उसे गाफिल समझता था। '
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ओशोधारा में हम प्रेम की स्वतंत्रता को सम्मान देते हैं , लेकिन परिवार , सम्मान अथवा अध्यात्मिक विकास की कीमत पर नहीं। तुमने सुना होगा यह प्रसिद्ध गीत -- ' छोड़ दे सारी दुनियां किसी के लिए , यह मुनासिब नहीं आदमी के लिए ; प्यार से भी जरुरी कई काम हैं , प्यार सबकुछ नहीं आदमी के लिए। '
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कर्मयोग मुक्ति देता है। ज्ञान योग सम्बोधि लाता है। भक्तियोग परमपद तक ले जाता है। सामान्यतः साधक कोई एक मार्ग चुनते हैं। मगर चेतना अखंड है। हम एक साथ तीनों मार्ग अपना सकते हैं। सानंद कर्म करते हुए कर्मयोगी हो सकते हैं। ध्यान , समाधि और प्रज्ञा साधकर ज्ञानयोगी हो सकते हैं। सदा सुमिरन में रहकर भक्तियोगी हो सकते हैं। तीनों का संगम सहजयोग है।
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गुरुद्रोह से बड़ा पाप कुछ भी नहीं है .गुरु से नहीं जुडो, कोई बात नहीं.पर जुड कर दुर्भावना रखो या द्रोह करो,यहाँ अक्षम्य अपराध है.गुरु भले इसे क्षमा कर दे,परमात्मा क्षमा नहीं करता.वेदव्यास कहते हैं--'विष्णु स्थाने कृतं पापं गुरु स्थाने प्रमुच्यते.गुरु स्थाने कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति..'अर्थात भगवान के यहां पाप करोगे,तो गुरु उससे मुक्त कर देगा.लेकिन गुरुद्रोह करोगे,तो वह अमिट कर्मबंध बन जाता है.