सिद्धार्थ उपनिषद Page 06
*****( साधना - सूत्र )*****
सिद्धार्थ उपनिषद Page 06
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मुमुक्षु कहाँ जाए ? धर्म के नाम पर कहीं कथा चल रही है.कहीं हीलिंग चल रही है.कहीं सत्संग चल रहा है.कहीं ज्योतिष तो कहीं यज्ञ-हवन चल रहा है.कहीं कीर्तन तो कहीं पाठ चल रहा है.कहीं कुम्भ या संक्रांति का मेला है,तो कहीं भभूत या कल्कि अवतार का झमेला है.कहीं दुःख निवारण तो कहीं रोग-निवारण चल रहा है.कहीं तंत्र-मंत्र-यन्त्र चल रहा है.कहीं राधे-राधे चल रहा है.कहीं गीता रटने को कहा जा रहा है.कहीं आत्मा मानकर जीने को कहा जा रहा है.कहीं नाम के नाम पर मंत्र दिया जा रहा है.ऐसे में गोविन्द पद तक की साधना के लिए 28 तल के कार्यक्रमों के साथ ओशोधारा का आना क्या चमत्कार नहीं है ???
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पदार्थ के धर्म को जानना विज्ञान है.चेतना के विज्ञान को जानना धर्म है.चेतन और जड़ के संयोग से जीवन बनता है.इसलिए जीवन विज्ञान और धर्म का योग है.केवल विज्ञान पर आधारित जीवन अधूरा है.केवल धर्म पर आधारित जीवन भी अधूरा है.विज्ञान और धर्म जीवन-पंछी के दो पंख हैं.
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माया और ब्रह्म विरोधी नहीं,पूरक हैं.धन और ध्यान कंट्राडिकट्री नहीं,कोम्प्लिमेंट्री हैं.संसारी माया में जीता है.साधक ब्रह्म में जीता है.संत में दोंनो तत्व संतुलित हो जाते हैं.संत का अर्थ ही है कि जो संतुलित जीवन जीता है.
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जीवन को जानना जिज्ञासा है.महाजीवन को जानना मुमुक्षा है.परमजीवन को जानना भक्ति है.धर्म का आधार जिज्ञासा है.मुमुक्षा उसकी दीवारें हैं.भक्ति उसकी छत है.तीनों के संयोग से धर्म का मंदिर निर्मित होता है.
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अमृत क्या है ? मैं निराकार हूं ,सब्जेक्टिविटी हूं,शाश्वत हूं,शांत हूं,नाद हूं,नूर हूं--शारीर मरेगा मैं नहीं.देह के पार,इंद्रियों के पार,साँसों के पार,ह्रदय के पार,मन के पार,अस्मिता के पार मैं ओंमकार तत्व हूं.मैं अजन्मा हूं,अविनाशी हूं,बचपन,जवानी,बुढापा के पार मैं अजर-अमर आत्मा हूं.
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आकाश बड़ा है कि परमात्मा ? यदि कहते हो कि आकाश बड़ा है,तब तो परमात्मा छोटा हो गया.यदि कहते हो कि परमात्मा बड़ा है,तो फिर आकाश अनंत नहीं रहा.तो फिर सत्य क्या है ? सत्य यही है कि आकाश ही परमात्मा है.इसे एक नए अंदाज में सुनों--'मेरे मुर्शिद ने कहा सिद्धार्थ सुन; आसमां खुद है खुदा हम क्या करें ?