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    मज्झिमनिका - ओशो

    Majjhimnika-Osho.


     मज्झिमनिका - ओशो 

    कुछ लोग हैं जो एक चीज को छोड़ते हैं तो दूसरी चीज को पकड़ लेते हैं; अति पर चले जाते हैं। धन छोड़ते हैं तो त्याग पकड़ लेते हैं; यह अति हो गयी। भोजन छोड़ते हैं तो उपवास पकड़ लेते हैं; यह अति हो गयी। संसार छोड़ते हैं; संन्यास पकड़ लेते हैं, यह अति हो गयी। संत तो सदा मध्य में होता है। बुद्ध ने कहा है-मज्झिमनिका

    य! उसका रास्ता तो बीच का है, वह अतियों से बचता है। जैसे घड़ी के पेंडुलम को तुम बीच में पकड़ कर रोक दो-न बाएं जाए न दाएं; तो क या होगा ? घड़ी की चाल बंद हो जाएगी, समय रुक जाएगा, समय ठहर जाएगा। मन का नियम है : या तो वह बाएं जाता है, अति पर, या दाएं जाता है, अति पर। जो आदमी भोजनभट्ट है, वह कभी भी उपवासी हो सकता है, खयाल रखना । भोजनभट्ट आज नहीं कल उरलीकांचन जाएगा। उरलीकांचन जाओ तुम, जो भी मिलें समझना ि क भूतपूर्व भोजनभट्ट हैं। नहीं तो उरलीकांचन किसलिए जाएंगे!

    वह जो स्त्रियों के पीछे दीवाना रहा है, आज नहीं कल स्त्रियों को छोड़कर भागेगा, व्र ह्मचर्य व्रत लेगा। जो भी ब्रह्मचर्य का व्रत ले, समझ लेना व्यभिचारी रहा है। नहीं तो ब्रह्मचर्य के व्रत की क्या जरूरत है! व्यभिचारी ही ब्रह्मचर्य का व्रत लेते हैं। और व्र ह्मचर्य का व्रत लेना पड़े तो वह व्रत व्रत होने के कारण ही झूठा हो जाता है। व्रत क । अर्थ होता है- जवरदस्ती थोपा संकल्प की शक्ति से थोपा अपने को बांधा नियंत्र ण में-यम में, नियम में, संयम में-अपने चारों तरफ वागुड़ लगायी, ताकि कहीं कोई खतरा न हो जाए। अपने हाथों में खुद ही जंजीरें पहना लीं कि कहीं किसी कमजोर क्षण में छूट न भागूं। अपने को सब तरफ से घेर लिया, ताकि निकलना भी चाहूं तो निकल न पाऊं।

    जो व्यभिचारी रहा है, वह ब्रह्मचर्य का व्रत लेगा। और जो भोगी रहा है, वह आज न हीं कल योगी हो जाएगा। जिन-जिन को तुम सिर के बल खड़े देखो, सावधान हो जा ना-ये भोगी हैं जो अब उलटे खड़े हो गए हैं। नहीं तो सिर के बल खड़े होने की को ई जरूरत है? अगर परमात्मा को तुम्हें सिर के वल ही खड़े रखना था, तो उसने सि र में पैर दिए होते। कम से कम पैर नहीं तो सींग तो दिए ही होते। कम-से-कम तीन सींग, तिपाई की तरह खड़े हो जाओ। ऐसा गोल सिर तो न दिया होता। शीर्षासन का तो इरादा परमात्मा का नहीं दिखता है। तुम्हारे गोल सिर से साफ जाहिर है। शी र्षासन करनेवाले को हाथ की टेक देनी पड़ती है, कि तकिए की टेक देनी पड़ती है, ि क दीवाल के किनारे खड़ा होना पड़ता है। परमात्मा ने तुम्हें पैर के बल ही खड़ा होने को बनाया है। लेकिन एक अति से आदमी दूसरी अति पर चला जाता है। अति में बंधन है; अति संसार है। और मध्य मुक्ति है; मध्य अतिक्रमण है।

    - ओशो 

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