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    अगर भारत को धार्मिक बनाना है, तो एक स्वस्थ शरीर की विचारणा धर्म के साथ संयुक्त करनी जरूरी है - ओशो

    If India is to be made religious, then the idea of a healthy body must be combined with religion - Osho


     अगर भारत को धार्मिक बनाना है, तो एक स्वस्थ शरीर की विचारणा धर्म के साथ संयुक्त करनी जरूरी है - ओशो 

    लेकिन हमने हजारों साल में एक धारा विकसित की--शरीर की शत्रुता की। और शरीर के शत्रु हमें आध्यात्मिक मालूम होने लगे। तो जो आदमी अपने शरीर को कष्ट देने में जितना अग्रणी हो सकता था--कांटों पर लेट जाए कोई आदमी, तो वह महात्यागी मालूम होने लगा। शरीर को कोड़े मारे कोई आदमी और लहूलुहान हो जाए...। यूरोप में कोड़े मारने वालों का एक संप्रदाय था। उस संप्रदाय के साधु सुबह से उठ कर कोड़े मारने शुरू कर देते। और जैसे हिंदुस्तान में उपवास करने वाले साधु हैं, जिनकी फेहरिस्त छपती है कि फलां साधु ने चालीस दिन का उपवास किया, फलां साधु ने सौ दिन का उपवास किया, वैसे ही यूरोप में वे जो कोड़े मारने वाले साधु थे, उनकी भी फेहरिस्त छपती थी कि फलां साधु सुबह एक सौ एक कोड़े मारता है, फलां साधु दो सौ एक कोड़े मारता है। जो जितने ज्यादा कोड़े मारता था, वह उतना बड़ा साधु था! 

            आंखें फोड़ लेने वाले लोग हुए, कान फोड़ लेने वाले लोग हुए, जननेंद्रिय काट लेने वाले लोग हुए, शरीर को सब तरह से नष्ट करने वाले लोग हुए! यूरोप में एक वर्ग था जो अपने पैर में जूता पहनता था, तो जूतों में नीचे खीले लगा लेता था, ताकि पैर में खीले चुभते रहें। वे महात्यागी समझे जाते थे, लोग उनके चरण छूते थे, क्योंकि महात्यागी हैं। आपका संन्यासी उतना त्यागी नहीं है, बिना जूते के ही चलता है सड़क पर। वह जूता भी पहनता था, नीचे खीले भी लगाता था। तो पैर में घाव हमेशा हरे होने चाहिए! खून गिरता रहना। चाहिए! कमर में पट्टे बांधता था, पट्टों में खीले छिदे रहते थे, जो कमर में अंदर छिदे रहें और घाव हमेशा बने रहें। लोग उनके पट्टे खोल-खोल कर देखते थे कि कितने घाव हैं और कहते थे कि बड़े महान व्यक्ति हैं आप।

            सारी दुनिया में शरीर के दुश्मनों ने धर्म के ऊपर कब्जा कर लिया है। ये आत्मवादी नहीं हैं, क्योंकि आत्मवादी को शरीर से कोई शत्रुता नहीं है। आत्मवादी के लिए शरीर एक वीहिकल है, शरीर एक सीढ़ी है, शरीर एक माध्यम है। उसे तोड़ने का कोई अर्थ नहीं। एक आदमी बैलगाड़ी पर बैठ कर जा रहा है। बैलगाड़ी को चोट पहुंचाने से क्या मतलब है? हम शरीर पर यात्रा कर रहे हैं, शरीर एक बैलगाड़ी है। उसे नष्ट करने से क्या प्रयोजन है? वह जितना स्वस्थ होगा, जितना शांत होगा, उतना ही उसे भूला जा सकता है। 

            तो दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं: भारत के धर्म ने चूंकि शरीर को इनकार किया, इसलिए अधिकतम लोग अधार्मिक रह गए। वे शरीर को इतना इनकार नहीं कर सके। तो उन्होंने एक काम किया कि जो शरीर को इनकार करते थे, उनकी पूजा की, लेकिन खुद अधार्मिक होने को राजी रह गए, क्योंकि शरीर को बिना चोट पहुंचाए धार्मिक होने का कोई उपाय न था। अगर भारत को धार्मिक बनाना है, तो एक स्वस्थ शरीर की विचारणा धर्म के साथ संयुक्त करनी जरूरी है और यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि जो लोग शरीर को चोट पहुंचाते हैं, ये न्यूरोटिक हैं, ये विक्षिप्त हैं, ये मानसिक रूप से बीमार हैं। ये आदमी स्वस्थ नहीं हैं, स्वस्थ भी नहीं हैं आध्यात्मिक तो बिलकुल नहीं हैं। इन आदमियों की मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। लेकिन ये हमारे लिए आध्यात्मिक थे। तो यह अध्यात्म की गलत धारणा हमें धार्मिक नहीं होने दी।

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