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    वही रामलीला, वही नाटक, सदियां बीत गईं, हम रुके पड़े हैं, हम डबरे हो गए हैं - ओशो

    Same Ramlila, Same drama, Centuries have passed, we have stayed, we have become dabbed - Osho

    वही रामलीला, वही नाटक, सदियां बीत गईं, हम रुके पड़े हैं, हम डबरे हो गए हैं - ओशो 

    मैं इस सूत्र से पूर्णतया राजी हूं: चरैवेति! चरैवेति! चलते रहो। चलते रहो। कहीं रुकना नहीं है। रुके कि मरे। रुके कि सड़े। बहते रहे तो स्वच्छ रहे। और यह देश सड़ा इसलिए कि रुक गया। और कब का रुक गया! यह अब भी स्वर्ण-युग की बातें कर रहा है, सतयुग की, कृतयुग की बातें कर रहा है। यह अभी भी बकवास में पड़ा हुआ है। अभी भी रामलीला देखी जा रही है। अभी भी बुडू रासलीला कर रहे हैं। हर साल वही नाटक। सदियों से चल रहा है वही नाटक। नाटक में भी कुछ नया जोड़ने की सामर्थ्य नहीं है। और कहीं कुछ नया जोड़ दिया जाए तो उपद्रव हो जाता है। 

            रीवां के एक कालेज में रामलीला खेली उन्होंने--युवकों ने। जरा बुद्धि का उपयोग किया। युवक थे, जवान थे, तो थोड़ी बुद्धि का उपयोग किया। सो उन्होंने रामचंद्र जी को सूट-बूट पहना दिए, टाई बांध दी, हैट लगा । दिया। अब हैट, सूट-बूट और टाई के साथ धनुष-बाण जंचता नहीं, सो बंदूक लटका दी। स्वाभाविक है, हर चीज की एक संगति होती है। अब इसमें कहां धनुष-बाण जमेगा! अब इनके पीछे सीता मैया को चलाओ तो उनमें भी बदलाहट करनी पड़ी। सो एडीदार जूते पहना दिए, मिनी स्कर्ट पहना दी। जनता नाराज भी हो और झांक-झांक कर भी देखे। 

            भारतीय जनता! भारतीय मन तो बड़ा अदभुत मन है! लोग बिलकुल झुके जा रहे। किसी से पूछो क्या दंढ रहे हो? कोई कहता मेरी टोपी गिर गई, कोई कहता मेरी टिकट गिर गई। सभी का कुछ न कुछ गिर गया है। लोग झांक-झांक कर देख रहे हैं। और नाराज भी हो रहे हैं कि रामलीला के साथ मजाक! और जब सीता मैया ने सिगरेट जलाया, तब बात बिगड़ गई। लोग उचक कर मंच पर चढ़ गए। जिन रामचंद्र जी और सीता मैया के हमेशा पैर छूते थे, उनकी पिटाई कर दी, पर्दा फाड़ डाला। और इसी धूम-धक्का में सीता मैया की स्कर्ट भी फाड़ डाली। अरे ऐसा अवसर कौन चूके! सीता मैया की फजीहत हो गई। ब्लाउज वगैरह फाड़ दिया। वह तो भला हो कि सीता मैया वहां थीं ही नहीं, गांव का एक छोकरा था। सो और गुस्सा आया। सो छोकरे की और पिटाई की कि हरामजादे, शर्म नहीं आती, सीता मैया बना है! वही रामलीला, वही नाटक। सदियां बीत गईं, हम रुके पड़े हैं। हम डबरे हो गए हैं।

    - ओशो 

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