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    पंडितों ने भारत को भाग्यवादी बना दिया - ओशो

     

    Pandits made India fatalistic - Osho

    पंडितों ने भारत को भाग्यवादी बना दिया - ओशो 

    यह धारणा प्रचारित की गई है पंडितों के द्वारा कि सब सुंदर बीत चुका; अब आगे सिर्फ अंधेरा है, निराशा है। इसलिए अब निराशा को अंगीकार करो, अंधेरे को जीओ। शांति से जीओ, संतोष से जीओ, ताकि भविष्य में परमात्मा तुम्हारे संतोष के लिए तुम्हें पुरस्कार दे। यह क्रांति का गला घोंटने का उपाय है। इन पंडितों ने यह प्रचारित किया है कि जब सतयुग था तो समय चार पैरों पर खड़ा था। जैसे कुर्सी में चार पैर होते हैं तो संतुलित होती है। 

            फिर आया त्रेता; तो समय की एक टांग टूट गई। जैसे तिपाई होती है, तीन पैरों पर। संतुलन अब भी रहा, लेकिन वह संतुलन न रहा जो चार पैरों से होता है। तिपाई जल्दी उलट सकती है, जरा सा धक्का देने से उलट सकती है। तीन ही टांगें हैं उसकी, इसलिए त्रेता। फिर द्वापर; एक टांग और टूट गई। अब तो दो पैर पर समय खड़ा हुआ। और ये दो पैर भी ऐसे नहीं जैसे बैलगाड़ी के होते हैं, बल्कि यूं समझो जैसे साइकिल के होते हैं। पैडल मारते रहो, मारते रहो, तो चलता है; जरा पैडल रुका कि साइकिल भी गिरी, तुम भी गिरे, हाथ-पैर भी टूटे। और सबसे बुरी हालत है कलियुग की; कलियुग यानी जब एक ही पैर बचा। अब हर आदमी लंगड़ा है और हर आदमी बैसाखी लिए है। हर आदमी काना है और हर आदमी का एक कान सड़ चुका है। हर आदमी का एक फेफड़ा मर चुका है। हर आदमी आधा लकवा खा गया है। यह कलियुग है। अब आगे सिर्फ कब्र है और कुछ भी नहीं। प्रतीक्षा करो। एक पैर तो कब्र में तुम्हारा जा ही चुका है; एक ही बाहर बचा है। अब ज्यादा की कुछ आशा न करो। अब जीवन में सुख की संभावना मत मानो। अब क्या तीर्थंकर होंगे? अब क्या अवतार होंगे? अब क्या बुद्ध होंगे? अब तो बुद्धुओं में ही रहना है और बुडू ही रहना है। कोई इस बुद्धपन से छुटकारे का उपाय नहीं। 

            यह निराशा पंडित फैला रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है। और जिस देश के मन में ये निराशा के भाव बैठ जाएं, उसका भविष्य धूमिल हो गया। इसलिए नहीं कि भविष्य धूमिल था; इस धारणा ने धूमिल कर दिया। और स्वभावतः, हर धारणा में एक दुष्ट-चक्र होता है। जब तुम एक धारणा मान कर चलते हो कि अब भविष्य अंधकारपूर्ण है तो तुम इस ढंग से जीते हो कि प्रकाश तो होना नहीं है, इसलिए प्रकाश लाने की जरूरत क्या? घर में तेल हो, बाती हो, दीया हो, माचिस हो, तो भी तुम दीया जलाते नहीं। जब दीया जलना ही नहीं है, जब यह समय के ही अनुकूल नहीं है, तो क्यों खाक मेहनत करनी, अंधेरे में ही जीओ! और जब अंधेरे में तुम्हारी धारणा को पोषण मिलता है कि ठीक कह गए संत, ठीक कह गए महंत, ठीक कह गए ऋषि-मुनि कि आगे अंधेरा ही अंधेरा है। अंधेरा ही तो दिख रहा है। अंधेरा बढ़ता ही जा रहा है। तुम्हारी धारणा के कारण दीया नहीं जलाते हो, क्योंकि आगे अंधेरा है, दीया जलने वाला नहीं। जैसे कि अंधेरे ने कभी दीये को बुझाया है! अंधेरे की क्या कुव्वत है, क्या बिसात है कि दीये को बुझा दे? अंधेरा नपुंसक है।

            जब दीया जलता है तो तुम लाकर टोकरी भर अंधेरा भी उसके ऊपर डाल दो तो भी दीया बुझेगा नहीं। लेकिन अंधेरे के डर से लोग दीया नहीं जला रहे हैं, तो फिर तो अंधेरा रहेगा। और जब अंधेरा रहेगा तो स्वभावतः धारणा को पोषण मिलेगा कि ठीक कहा, ठीक कहा शास्त्रों ने कि अंधेरा ही अंधेरा है! तुम जीवन को सुंदर बनाने की चेष्टा छोड़ दिए तो सड़ गए। सड़ गए तो तुम्हारे ऋषि-मुनि सही सिद्ध हो रहे हैं कि यह तो होना ही था, यह तो पहले ही कह गए थे लोग। मानो या न मानो, मगर जो होना है वह होना है। जो बदा है वह होना है। इस तरह भारत को भाग्यवादी बना दिया है।

    - ओशो 

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