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    सुकरात की मृत्यु - ओशो

     

    death of socrates - osho


    सुकरात की मृत्यु - ओशो 

    सुकरात अस्सी साल की उम्र में जहर देकर मारा गया। लेकिन मरते समय भी चित्त उसका युवा है। बाहर जहर तैयार किया जा रहा है, उसके शिष्य रो रहे हैं और वह उनसे कह रहा है: ।रो लेना बाद में। इतनी क्या जल्दी है? छह बजने के करीब हैं, छह बजे जहर दे दिया जाएगा। रोने के लिए तुम्हें जिंदगी पड़ी है। थोड़ी देर मेरे साथ और हो लो, थोड़ी देर और मेरे साथ जी लो। फिर मैं यहां नहीं रहूंगा। रोना पीछे कर लेना, रोना-धोना कभी भी कर लेना, जब सुविधा हो तब कर लेना। अभी तो हंस लो, अभी तो बोल लो। अभी तो समारोह। अभी तो मैं जिंदा हूं! अभी तो मैं जवान हूं! अभी तो मरा नहीं! और अगले क्षण क्या होगा, इतनी जल्दी क्या है? फिर इतनी चिंता क्या है? मरने में दो ही संभावनाएं हैं...।' यह देखते हो मरते हुए आदमी की...बाहर सिल पर जहर घोंटा जा रहा है, उसकी आवाज आ रही है--घर-घर। जहर तैयार होता जा रहा है, घड़ी का कांटा करीब पहुंच रहा है, इधर सूरज ढला कि इधर जहर का प्याला तैयार हो जाएगा। और सूरज ढलने के करीब है, लेकिन जरा भी मोह नहीं जीवन का, जरा भी पकड़ रखने की आसक्ति नहीं। 

            और जो सुकरात ने कहा वह बड़ा विचारणीय है। मरते हए आदमी का वक्तव्य है। सुकरात ने कहा कि दो ही संभावनाएं हैं--इसमें रोने की बात क्या? या तो नास्तिक सही है कि तुम मरे कि । सब मरा, फिर कुछ बचता नहीं। जब बचता ही नहीं तो डर क्या है? डर किसको है? जब मैं बचूंगा ही नहीं तो चिंता क्या है? पानी का बबूला था, फूट गया, फूट गया। एक कहानी थी, टूट गई, टूट गई। एक सपना था, बिखर गया, बिखर गया। यूं भी सपने में कुछ न था। यूं भी पानी के बबूले में क्या था? तो अगर नास्तिक सही कहते हैं--यह सुकरात की चिंतना की प्रक्रिया थी, यह सुकरात के सोचने का ढंग था, यह उसकी कला थी--अगर नास्तिक सही कहते हैं तो रोना बंद करो। नास्तिक यही कह रहे हैं कि मैं हूं ही नहीं। इसलिए मिट जाऊंगा। जो है ही नहीं वह मिटेगा, मिटना ही चाहिए। और अगर आस्तिक सही कहते हैं कि आत्मा अमर है, देह गिरेगी, मगर आत्मा बचेगी, फिर तो रोने को कुछ भी नहीं। देह तो मैं नहीं हूं। अगर आस्तिक सही हैं तो मैं आत्मा हूं। आत्मा अमर है। तो भी रोने को कुछ नहीं। और ये दो ही विकल्प हैं, तीसरा कोई विकल्प नहीं। दोनों हालत में आनंद से विदा दो।

    - ओशो 

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