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    बूढों और बच्चों को साथ-साथ पालना बच्चे को बचपन से ही पागल बनाने की चेष्टा है- ओशो

    Raising old people and children together is an attempt to make the child mad since childhood - Osho


     बूढों और बच्चों को साथ-साथ पालना बच्चे को बचपन से ही पागल बनाने की चेष्टा है- ओशो 

    अब तक सोचा जाता था कि मां-बाप से दूर रखने में बच्चों का प्रेम कम हो जाएगा, लेकिन किबुत्ज के प्रयोग ने सिद्ध कर दिया है कि मां-बाप और बच्चों के बीच प्रेम अदभुत रूप से विकसित हआ। वहां जो बच्चे सामूहिक रहे। इसका हमें खयाल ही नहीं है कि छोटे बच्चों को बूढों के साथ पालना एकदम अनैतिक है। छोटे बच्चों की बुद्धि छोटे बच्चों की है, बूढों की बुद्धि बूढों की है। बूढों को जीवन भर का अनुभव है, वे और ढंग से सोचते हैं, बच्चे और ढंग से। और हमारे सभी बच्चों को बूढों के साथ पलना पड़ता है। इसमें कितना अनाचार हो जाता है बच्चों के साथ, इसका हमें हिसाब लगाना बहुत मुश्किल है। न बूढे बच्चों को समझ सकते हैं, न बच्चे बूढों को समझ सकते हैं। बूढे दुखी होते हैं कि बच्चे हमें परेशान कर रहे हैं। और बच्चों को हम कितना परेशान करते हैं, इसका हमें कोई हिसाब नहीं है। 

            किबुत्ज ने कहा कि बूढों और बच्चों को साथ-साथ पालना बच्चे को बचपन से ही पागल बनाने की चेष्टा है। क्योंकि बूढे का अपना सोचने का ढंग है। उसका ढंग गलत है, यह नहीं; उसका अपना जीवन का अनुभव है; उसका अपने सोचने का ढंग है; उसकी उम्र के देखने का अपना रास्ता है; छोटे बच्चे की जिंदगी से उसका क्या संबंध है? तो किबुत्ज कहता है कि एक उम्र के लोगों को एक ही उम्र के लोगों के साथ पालना ही मनोवैज्ञानिक है। तो जिस उम्र के बच्चे हैं वे उसी उम्र के बच्चों के साथ पाले जाएं। और इसका परिणाम यह हुआ है कि किबुत्ज से आए हुए बच्चों में एक ताजगी, एक नयापन, बात ही और, खुशी ही और। हमारे बच्चे तो बूढों के साथ रह-रह कर उदास हो जाते हैं। इसके पहले कि वे खुश होना सीखें, चारों तरफ उदासी उनको पकड़ लेती है। वे एकदम भयभीत हो जाते हैं, क्योंकि हर चीज में उन्हें लगता है कि वे गलत हैं। पिता किताब पढ़ रहे हैं, गीता पढ़ रहे हैं, और बच्चे को लगता है कि वह शोर कर रहा है तो गलत कर रहा है।

            अब बच्चे को कभी खयाल में भी नहीं आता कि गीता पढ़ना क्या इतना उपयोगी हो सकता है कि मेरा शोर करना फिजूल हो! बच्चे के लिए कूदना और शोर करना इतना सार्थक है कि उसकी कल्पना के बाहर है कि आप एक किताब लेकर बैठे हैं तो कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं कि हम शोर न करें। हर चीज धीरे-धीरे उसको पता चल जाती है कि वह गलत है। तो हम हर बच्चे को गिल्टी और अपराधी बना देते हैं। बचपन से ही उसे लगने लगता है कि जो मैं करता हूँ वह गलत है। शोर करता हूं, गलत है; खेलता हूं, गलत है; दौड़ता हूं, गलत है; झाड़ पर चढ़ता हूं, गलत है; नदी में कूदता हूं, गलत है; कपड़े पहने हुए वर्षा में खड़ा होता हूं, गलत है। मैं जो भी करता हूं, गलत है। इसका इकट्ठा परिणाम होता है कि मैं गलत आदमी हूं। हम अपराध ही पैदा कर रहे हैं बचपन से। और उसका कुल कारण यह है कि बच्चों को उनकी भिन्न उम्र के लोगों के साथ पाला जा रहा है। किबुत्ज में उन्होंने व्यवस्था की है कि बच्चे एक उम्र के बच्चों के साथ पलें।

            उनको संभालने के लिए भी उनसे थोड़ी ही ज्यादा उम्र के बच्चे हों, बहुत बड़ी उम्र के लोग नहीं। बड़ी उम्र के  लोग कोनों में और दूर खड़े रहें। वे इतना ही ध्यान रखें तो काफी है कि बच्चे कोई अपने को आत्म-हानि न पहुंचा लें। बस इससे ज्यादा ध्यान रखने की कोई जरूरत नहीं है।

    - ओशो

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