आदमी अपनी-अपनी शक्ल में भगवान को बनाये हुए बैठा है - ओशो
आदमी अपनी-अपनी शक्ल में भगवान को बनाये हुए बैठा है - ओशो
कल रात मैं बात करता था-एक संन्यासी के पास मेरा एक मित्र मिलने गया था। उस संन्यासी ने कहा-मंदिर जाते हो? मेरे उस मित्र ने कहा-मंदिर है कहां? हम तो जरूर जाएं, कोई मंदिर बता दे! वह संन्यासी तो हैरान हुआ। वह संन्यासी तो मंदि र में ठहरा हुआ था। उस संन्यासी ने कहा-यह जो देख रहे हो, यह क्या है? उस यु वक ने कहा-यह तो मकान है, यहां मंदिर कहां है? यह तो मकान है। और उस यु वक ने कहा- सारी जमीन पर, जिनको लोग मंदिर और मस्जिद कहते हैं, वे मकान हैं, मंदिर कहां हैं ? और जिनको आप मूर्तियां कह रहे हैं, जिनको आप भगवान क ी मूर्तियां कह रहे हैं-कैसी आत्मप्रवंचना है, कैसा धोखा है! मिट्टी और पत्थर को, अपनी कल्पना से हम भगवान बना लेते हैं, जैसे कि हम भगवान के स्रष्टा हैं। सुना था मैंने कि भगवान मनुष्यों का स्रष्टा है, देखा यही कि आदमी, मनुष्य ही भ गवान के स्रष्टा हैं और हर एक आदमी अपनी-अपनी शक्ल में भगवान को बनाये हु ए बैठा है। भगवान ने दुनिया को सभी बनाया या नहीं, यह तो संदेह की बात है, लेकिन आदमी ने भगवान की खूब शक्लें बनायी हैं, यह स्पष्ट ही है। और जो भगवन आदमी का बनाया हुआ हो, उसे भगवान कहना, आदमी के अज्ञान और अहंकार की घोषणा के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
जो आदमी का बनाया हुआ हो, उसे भगवान कहना, आदमी के अज्ञान और अहंकार की घोषणा के सिवाय और क्या है? कैसा धोखा आदमी अपने को दे सकता है! यह हमारा निम्नतम अहंकार है कि हम सोचते हैं कि जो हम बनाते हैं, वह भगवा न हो सकता है। जो नहीं बनाया जा सकता और जिसे कोई कभी नहीं बना सकेगा और जो सब बनाने के पहले है और सब बनने के बाद भी शेष रह जाता है, उसे ह म भगवान कहते हैं। उसका मंदिर कहां है, उसकी मस्जिद कहां है, उसके मानने वा ले लोग कहां हैं? असल में उसका कोई मानना नहीं होता, उसका तो जानना होता है
- ओशो
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