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    प्रेम-एक से सर्व की ओर - ओशो

    प्रेम-एक से सर्व की ओर - ओशो From-love-to-everyone-Osho


    प्यारी सोहन, 

            मैं कल यहां आ गया। आते ही सोचता रहा, पर अव लिख पा रहा हूं। देर के लिए क्षमा करना। एक दिन की देर भी कोई थोड़ी देर तो नहीं है। वापसी यात्रा के लिए क्या कहूं? वहुत आनंदपूर्ण हुई। पूरे समय सोया रहा और तू सा थ बनी रही। यूं तुझे पीछे छोड़ आया था-पर नहीं, तू साथ ही थी। और, ऐसा साथ ही साथ है, जो कि छोड़ा नहीं जा सकता है। शरीर की निकटता निकट होकर भी नि कट नहीं है। उस तल पर कभी कोई मिलन नहीं होता-वहां बीच में अलंध्य खाई है। पर एक और निकटता भी है जो कि शरीर की नहीं है। उस निकटता का नाम ही प्रेम है। उसे पाकर फिर खोया नहीं जा सकता है और तब दृश्य जगत में अनंत दूरी होने पर भी अदृश्य में कोई दूरी नहीं होती है। यह अ-दूरी यदि एक से भी सध जावें तो फिर सबसे सध जाती है। एक तो द्वार ही है। साध्य तो सर्व है। प्रेम का प्रारंभ एक है; अंत सर्व है। वही प्रेम जो सर्व  संबोधित हो जाता है और जिसकी निकटता के बाहर कुछ भी शेष नहीं बचता है-उसे ही मैं धर्म कहता हूं। जो प्रेम कहीं भी रुक जाता है, वही अधर्म बन जाता है। माणिक वावू को प्रेम। 


    रजनीश के प्रणाम
    १७ अप्रैल १९६५ प्रति : सुश्री सोहन, पूना

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