द्वैत का अतिक्रमण-साक्षी भाव से - ओशो
प्रिय योग प्रेम।
प्रेम।
अस्तित्व है धूप-छांव। आशा-निराशा। सुख-दुख । जन्म-मृत्यु । अर्थात अस्तित्व है द्वैत । विरोधी ध्रुवों का तनाव। विरोधी स्वरों का संगीत। लेकिन, उसे ऐसा जानना, पहचानना, अनुभव करना-उसके पार हो जाना है। यह अतिक्रमण (तंदेवमदकमदबम) ही साधना है। इस अतिक्रमण को पा लेना सिद्धि है। इस अतिक्रमण का साधना-सूत्र है : साक्षी-भाव। कर्ता को विदा करो। और, साक्षी में जियो। नाटक को देखो-नाटक में ड्रबो मत।
और देखने वाले द्रष्टा में डूबो। फिर दृश्य में ही रह जाते हैं सुख-दुख, जन्म-मृत्यु। फिर वे छूते नहीं है-छू नहीं सकते हैं। उनके तादात्म्य (टकमदजपजल) में ही बस सारी भूल है, सारा अज्ञान है।
रजनीश के प्रणाम
२६-११-१९७० प्रति : मा योग प्रेम, विश्वनीड, संस्कार तीर्थ, आजोल, गुजरात
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