नास्तिकता में और गहरे उतरें - ओशो
मेरे प्रिय,
प्रेम।
नास्तिकता आस्तिकता की पहली सीढ़ी है। और अनिवार्य। जिसने नास्तिकता की अग्नि नहीं जानी है, वह आस्तिकता का आलोक भी नहीं जान सकता है। और, जिसके प्राणों में नहीं कहने की सामर्थ्य नहीं है, उसकी हां सदा ही निर्वीर्य होती है। इसलिए, मैं आपके नास्तिकता होने से आनंदित हूं। ऐसा आनंद केवल उसे ही हो सकता है, जिसने आस्तिकता को जाना है। वस, इतना ही कहूंगा कि नास्तिकता में और गहरे उतरें।
ऊपर-ऊपर से काम नहीं चलेगा। सोचें ही नहीं-नास्तिकता को जिए भी। वैसा जीना ही अंतत: आस्तिकता पर ले जाता है। नास्तिकता निष्कर्ष नहीं है। सिर्फ संदेह है। संदेह शूभ है पर अंत नहीं है। वस्तुतः तो संदेह श्रद्धा की खोज है। चले-बढ़े-यात्रा करें। संदेह से ही सत्य की यात्रा शुरू होती है।
और, संदेह साधना है। क्योंकि, अंततः संदेह ही निसंदिग्ध सत्य का अनावरण करता है। संदेह के बीज में श्रद्धा का वृक्ष छिपा है। संदेह को जो बात है श्रम से, वह निश्चय ही श्रद्धा की फसल काटता हैं। और धर्मों से उचित ही है कि सावधान रहें; क्योंकि उनके अतिरिक्त धर्म के मार्ग में और कोई बाधा नहीं है।
रजनीश के प्रणाम
२६-११-१९७० प्रति : श्री भवानीसिंह, ग्राम व पोस्ट-त्राहेल, वाया-अहलीलाल, जि. कांगरा, हिमाचल प्रदेश
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