अंतर्यात्रा-स्वयं में, सत्य में - ओशो
प्रिय सोहन,
स्नेह।
मैं आनंद में हूं। आज रात्रि ही पुन: बाहर जा रहा हूं। बंबई आकर मिल सकी, यह शुभ हुआ। तुम्हारे भीतर जो हो रहा है, उसे देखकर हृदय प्रफुल्लित हुआ। ऐसे ही व्यक्ति तैयार होता है और सत्य के सोपान चढ़े जाते हैं। जीवन दुहरी यात्रा है : एक यात्रा समय और स्थान होता है, और दूसरी यात्रा स्वयं में और सत्य में होती है। पहली यात्रा का अंत मृत्यु में और दूसरी का अमृत में होता है। दूसरी ही यात्रा व स्तविक है, क्योंकि वही कहीं पहुंचाती है। जो पहली यात्रा को ही सब समझ लेते हैं, उनका जीवन अपव्यय हो जाता है। वास्तविक जीवन उसी दिन आरंभ होता है जिस दिन दूसरी यात्रा की शुरुआत होती है। तुम्हारी चेतना मैं वह शुभारंभ हुआ है और मैं उसे अनुभव कर आनंद से भर गया हूं। माणिक लाल जा को और सबको मेरा स्ने
रजनीश के प्रणाम
४-१-१९६५ प्रति : सुश्री सोहन वाफना, पूना
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