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    प्रेम-अनंतता है - ओशो

     

    Love-is-infinity-osho

    मेरे प्रिय। 

        प्रेम। 

                   तुम्हारा पत्र पाकर अत्यंत आनंदित हूं। ऐसा हो भी कैसे सकता है कि प्रेम की किरण आवे और साथ में आनंद की सुवास न हो? आनंद प्रेम की सूवास के अतिरिक्त है ही क्या? लेकिन पृथ्वी तो ऐसे पागलों से भरी है, जो कि-जीवन भर आनंद की तलाश करते हैं और प्रेम की ओर पीठ किए रहते हैं। प्रेम ही जब समग्र प्राणों की प्रार्थना बन जाता है। तभी प्रभु के द्वार खुल जाते हैं। शायद उसके द्वार खुले ही हैं, लेकिन जो आंखें प्रेम के लिए बंद हैं, वे उसके खुले द्वा रों को भी कैसे देख सकती हैं? लेकिन, यह क्या लिखा है : क्षणिक संपर्क! नहीं! नहीं! प्रेम का संपर्क क्षणिक कैसे हो सकता है? प्रेम तो क्षण को भी अनंत बना देता है। प्रेम जहां है वहां कुछ भी क्षणिक नहीं है। प्रेम जहां है वहीं अनंतता (द्मजमतदपजल) है। बूंद क्या बूंद ही है? नहीं! नहीं! वह सागर भी है। प्रेम की आंखों से देखी गई बूंद सागर हो जाती है। मैं अगस्त में यहां प्रतीक्षा करूंगा। २, ३, ४ अगस्त। टंडन जी को मेरे प्रणाम कहें। 



    रजनीश के प्रणाम
    ३०-६-६८ प्रति : श्री महीपाल, बंबई

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