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    जीवन-दृष्टि - ओशो

     

    Life-Vision-Osho

    मेरे प्रिय, प्रेम। 

            विश्राम परम लक्ष्य है, श्रम साधन । पूर्ण विश्राम परम लक्ष्य है जहां कि श्रम से पूर्ण मुक्ति है। फिर जीवन लीला है। फिर श्रम है तो खेल है। ऐसे खेल से ही समस्त संस्कृति का जन्म हुआ है। काव्य, दर्शन, धर्म सब विश्राम की उपलब्धियां हैं। आज तक सब के लिए ऐसा नहीं हो सका है। लेकिन टेकनोलाजी और विज्ञान के द्वारा भविष्य में यह संभव है। इसलिए ही मैं टेकनोलाजी के पक्ष में हूं। लेकिन जो श्रम में किसी आंतरिक मूल्य (टदजतपदेपब अंसनम) का दर्शन करते हैं, वे यंत्रों का विरोध ही करते हैं, और कर सकते हैं। मेरे लिए श्रम में कोई आंतरिक मूल्य नहीं है। विपरीत, वह एक बोझ हैं। जब तक विश्राम के लिए श्रम आवश्यक है, तब तक श्रम आनंद नहीं हो सकता है। जब विश्राम से और परिणामतः स्वेच्छा से श्रम निकलता है, तभी वह आनंद होता है और हो सकता है। इसलिए मैं आराम को हराम करने में असमर्थ हूं। फिर मैं त्याग का भी समर्थक नहीं हूं। मैं यह भी नहीं चाहता हूं कि एक व्यक्ति दूसरे के लिए जिए या एक पीढ़ी दूसरी पी. ढी के लिए कुर्वानी करे। ऐसी कुर्बानियां बहुत महंगी पड़ी हैं, और जो उन्हें करता है 

            वह उनके बदले में अमानवीय अपेक्षाएं करने लगता है। बापों को बेटों से असंभव अपेक्षाओं का कारण ही यही है। फिर यदि हर वाप अपने बेटे के लिए जिए तो कोई भी कभी जी ही नहीं पाएगा, क्यकि हर बेटा बाप बनने को है। नहीं-मैं तो चाहता हूं कि प्रत्येक अपने लिए जिए-अपने सुख के लिए अपने विश्राम के लिए। वाज जब सुखी होता है तब अपने बेटे के लिए सहज ही ही बहुत कुछ कर पाता है। वह सब उसके वाप और सुखी होने से ही निकल आता है। वह कुर्बानी नहीं है और न ही त्याग है। वह सब तो वाप होने का आनंद है। और तब बेटों से अमानवीय अपेक्षाएं नहीं रखता है। और जहां अपेक्षाओं का दबाव नहीं, वह अपेक्षाएं भी पूरी हो सकती हैं। वह पूरा होना भी बेटे के बेटे होने से निकलता है। संपेक्ष में, मैं प्रत्येक व्यक्ति को स्वार्थी होना सिखाता हूं। परार्थ की शिक्षाओं ने मनुष्य को आत्मघात के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं सिखाया है। और आत्मघाती मनुष्य सदा ही परघाती होता है। दुखी दूसरों को भी दुख वांटता रहता है।

            मैं भविष्य के लिए भी वर्तमान की बलि चढ़ाने के विरोध में हूं। क्योंकि जो है, वह वर्तमान है। उसे जिए उसकी पूर्णता में और फिर उससे भविष्य भी जन्मेगा। लेकिन वह भी जब जाएगा तव वर्तमान ही होगा। और जिसने वर्तमान को भविष्य पर वलि करने की आदत बना ली है उसके लिए भी वष्य कभी भी आने को नहीं है। क्योंकि जो आता है वह सदा न आए के लिए वलि कर दिया जाता है। और अंततः आपने पूछा है कि आप भी तो दूसरों के लिए और भविष्य के लिए श्रम कर रहे हैं? प्रथम तो मैं श्रम कर ही नहीं रहा हूं। क्योंकि जो भी मैं कर रहा हूं वह मेरा विश्राम का ही बहाव है। मैं तेरे नहीं रहा है-बस बह ही रहा हूं। और दूसरों के लिए कोई कभी कुछ कर ही नहीं सकता है। हां-जो मैं हूं, उससे दूसरों के लिए कुछ हो जाए तो वह दूसरी बात है। 

            उसमें भी मैं कर्त्ता नहीं हूं। और रहा भविष्य? सो मेरे लिए तो वर्तमान ही सब कुछ है।। अतीत भी वर्तमान है-जो जा चुका, और भविष्य भी-जो कि आने को है। और जीना तो सदा-अभी और यहां (भमतम छवू) है, इसलिए मैं अतीत और भविष् य की चिंता नहीं करता हूं। और आश्चर्य तो यह है कि जब से मैंने उनकी चिंता छोड़ी है, तब से वे मेरी चिंता करने लगे हैं। वहां सबको मेरे प्रणाम 


    रजनीश के प्रणाम
    २-१-१९७० प्रति : श्री शयवंत, मेहता, २१.२२ प्रीतमनगर, एलिस वृज, अहमदाबाद

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