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    मिथक क्या है ?

    मिथक क्या है ?

    मिथक क्या है ?

               मिथक मानव जाति का सामूहिक स्वप्न एवम् सामूहिक अनुभव है | मिथक प्रागेतिहासिक घटना या आस्था है जब कि स्वप्न एक प्रतीकात्मक इच्छाभिव्यक्ति | प्रतीक दोनों में विद्यमान हैं, परन्तु अलग अलग ढंग से | मानव चेतना मिथकीय चेतना से ही विकसित हो कर यथार्थवादी (ऐतिहासिक ) चेतना में परिवर्तित होती है | ऐतिहासिक चेतना के साथ साथ मिथकीय चेतना भी जब विलुप्त हो जाती है तो वह संस्कार मात्र रह जाती है, जिसे जुंग ने सामूहिक अवचेतन कहा है | इस आधुनिक ऐतिहासिक चेतना में मिथक बार बार नया रूप लेता है | वह उसे आर्किटाइपल बिम्बों, चिरंतन प्रतीक, और व्याख्याओं के रूप में व्यक्त करता है |
           
                मिथक मानव का आदिम काव्य है | आदिम मनुष्य का मन मिथकवित्  (मिथोपोइक) था | उन मिथकों में  समयांतर से विलुप्तिकरण होने के बाद भी उसकी विचार वस्तु (थीम) का उत्तरजीवन बना रहता है | मिथकों में दो धरातल होने के कारण ऐसा होता है | पहला  प्रत्यक्षीकरण का और दूसरा अवधारणा का है | प्रत्यक्षीकरण धरातल पर अर्केटाइपल बिम्ब स्थित होते हैं जब कि अवधारणा के तल पर प्रतीक | जब भी सामाजिक जीवन में द्वन्द उत्पन्न होता है उस समय ही मिथक प्रतीकीकरण के द्वारा एक नए पक्ष को उद्घाटित कर देता है | इसीलिए यह कहना उचित होगा कि वे मानवचिति (ह्युमन साइकि) की यथार्थता में संस्कार रूप में सुरक्षित रहते हैं | उदहारण के लिए जलप्लावन मिथक को ले सकते हैं | यह घटना असीरियन-बेबिलोनियन स्त्रोतों से चल कर भारत में आई हैं | जल प्लावन की आदिम घटना मनु के मिथक से अनुस्यूत हो गयी हैं | यह हमें शतपथ ब्राह्मण जो कि ईसा पूर्व २००० से २५०० का है से पता चलता है और बाद के समय में विष्णु के तीन तीन अवतार --मत्स्य ,कच्छप और वराह भी इसी जलप्लावन मिथक से सम्बद्ध हो गये |
         
              मिथक का प्रधान चरित पावनता है | वह ऐतिहासिक न होते हुए भी पुनीत है उसकी यह पुनीत यथार्थता( सेक्रेड रियलिटी ) उसे तर्क पूर्व चिंतन ( प्री-लाजिकल थाट ) में बदल देती है | इसीलिए मिथक की अन्तःभूमि चिंतन न हो कर अनुभूति है | हम यदि मिथक की बौद्धिक व्याख्या इत्यादि करते हैं तो उसका प्रत्यक्षीकरण विलुप्त हो जाता है | उसके मेटामार्फोसिस अर्थात  रूपांतरण में उसका आधा जादू खो जाता है |
     मिथक का आधार आस्था में और उससे भी ज्यादा हठात विश्वास में रहता है | इसी धरातल पर मिथकीय कल्पना का हवामहल खड़ा रहता है | आस्था ही मिथक को यथार्थ और पुनीत बनाती है | इन्ही कारणों से धार्मिक चेतना मिथकों को  सत्य भी मानती है |

              मिथक ऐतिहासिक स्थिति का अतिक्रमण भी करती है | यह मनुष्य को ऐतिहासिक स्थिति का विस्मरण करा देती है | जैसे  महर्षि विस्वमित्र का सतयुग और त्रेता में भी उल्लिखित होना | इस विस्मरण से मिथकीय काल चिरंतन हो जाता है जहाँ न तो क्रम है, न परिवर्तन है और न ही गति | इस चिरंतन काल  में विकास और परिवर्तन का स्थान कथान्तरण ले लेता है | यह लक्षित करना कठिन है कि मिथक का अंत कब होता है और धर्म का प्रारम्भ कब होता है क्यों कि धर्म लगातार मिथकीय तत्वों से सम्बंधित और भरा हुआ है | जब हमें अपनी सही राह की खोज में मुश्किलें आ रही हों और समस्याएं अनिश्चित हों तब बहुत अधिक जादू और उसके साथ साथ मिथक शास्त्र भी विकसित होता है | शाक्त, शैव, नाथ और सिद्ध साधनाओ के सन्दर्भ में यही घटित हुआ | इसमें गूढ़ ज्ञान और रहस्यवाद भी विकसित हुआ | जहाँ जादू औसत अंध-विश्वासों की अभिव्यंजना का प्रतीक है वहीँ धर्म सर्वोच्च नैतिक आदर्शों का प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है | देखा जाय तो जादू के आदिम कला ,आदिम मिथक, आदिम विज्ञानं और आदिम धर्म सदैव बने रहे हैं क्यों कि मनुष्य के कौतूहल ने ही जादू को जन्म दिया है और मिथक का जादू ही यह है वह चिरंतन समय या कहें महाकाल में सदैव सिद्ध है और इसीलिए वह निरंतर भी है | इसी कारण से मनुष्य अपने ऐतिहासिक काल के अतिक्रमण कि आकांछा को तृप्त कर लेता है | मिथक सत्य और ऐतिहासिक सत्य में मौलिक रूप से  क्या अंतर है ? मिथक सत्य श्रद्धा पर आश्रित है जब कि ऐतिहासिक सत्य विज्ञान पर | मिथक सत्य कर्मकांड से ओतप्रोत है जब कि ऐतिहासिक सत्य तथ्यों पर आधारित है जो कि तथ्यों को संकलित करने के बाद उसकी व्याख्या करने के बाद मिलती है | हाँ यह कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक प्रतीकों को मिथकीय सत्य से जोड़ा अवश्य जाता है जिससे अर्केटाइपों का फिर से अन्वेषण हो जाता है  |
       अब हम कुछ मिथकीय रूपों की ओर बढ़ते हैं - जैसे नटराज, छिन्नमस्ता, काली इत्यादि |
     

       नटराज :--

     
       नटराज की मूर्ति या चित्र को देखें तो यह प्रतीत होता है कि शिव जो कि नृत्य के अधिष्ठाता हैं जो  इस विश्व नृत्य में संलग्न है  | इस प्रक्रिया में उन्होंने अपने पैरों से एक बौने को दबा रखा है जो कि भ्रम का प्रतीक है | उन्होंने अपने दाहिने हाथ में डमरू ले रखा है जो सृजन का प्रतीक है वहीँ बाएं हाथ में लिया हुआ अग्नि मशाल विध्वंश का प्रतीक है | इसकी निचला दायाँ हाथ जो कि आगे कि ओर निकला हुआ है उसकी मुद्रा अभय का प्रतीक है वहीँ निचले बाएं हाथ की मुद्रा मुक्ति का प्रतीक है | इस मूर्ती के चारों ओर एक अग्नि का घेरा है जो पूरे विश्व को प्रदर्शित करता है |

    छिन्नमस्ता :--


     छिन्नमस्ता देवी का रूप सृजन और विध्वंश दोनों आयामों को प्रदर्शित करता है | उनके दोनों ओर दो योगिनी हैं क्रमशः - डाकिनी और वारुणी | रतिक्रिया और कामक्रिया  विश्व में स्त्री और पुरुष सिद्धांत हैं जो मिलने पर इस संवृति जगत के पार ले जाती है और द्वैत के अनुभव को समाप्त करती है |

    काली :--


    काली  शक्ति का शून्य् स्वरूप हैं वे रति और काम रुपी आदिम इच्छा जो समस्त  सृष्टि के सृजन के मूल में  है उस के प्रतीक के ऊपर खड़ी हैं | उन्होंने जो मनुष्यों की खोपड़ियों की माला पहन रक्खी है वे बुद्धि और शक्ति का प्रतीक हैं | उनकी रक्त रुपी  जिव्हा रजो गुण की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं जिसके कारण जगत की क्रिया को शक्ति मिलती है | उनके एक हाथ में खड्ग है और दूसरे में कटा हुआ मनुष्य का सिर जो  संबोधित करता है विलीन और शून्य हो जाना जो साधकों को निर्देशित करता है अपने अहंकार को समाप्त करें | उनके कमर में बंधी कटे हुए हाथों से बनी कमरधनी व्यक्ति के कर्म और उसका निरूपण को व्यक्त करती हैं |

    बिपिन कुमार सिन्हा