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    विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 01


    विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 01

    ( " हे देवी , यह अनुभव दो श्वासों के बीच घटित हो सकता है. श्वास के भीतर आने के पश्चात् और बाहर लौटने के ठीक पूर्व -- श्रेयस है, कल्याण है. " )


    जब तुम्हारी श्वास भीतर आये  तो उसका निरिक्षण करो. उसके फिर बाहर या ऊपर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण के लिए , या क्षण के हजारवें भाग के लिए श्वास बंद हो जाती है.  श्वास भीतर आती है और वहाँ एक बिंदु है जहाँ वह ठहर जाती है. फिर श्वास बाहर जाती है तो फिर वहाँ भी एक क्षण के लिए या क्षणांश के लिए ठहर जाती है. और फिर वह भीतर के लिए लौटती है.

      श्वास के भीतर या बाहर के लिए मुड़ने के पहले एक क्षण है जब तुम श्वास नहीं लेते हो. उसी क्षण में घटना घटनी संभव है ; क्योंकि जब तुम श्वास नहीं लेते हो तो तुम संसार में नहीं होते हो. समझ लो कि जब तुम श्वास नहीं लेते हो तब तुम मृत हो ; तुम तो हो, लेकिन मृत. लेकिन यह क्षण इतना छोटा है कि तुम उसे कभी देख नहीं  पाते.

      तंत्र के लिए प्रत्येक बहिर्गामी श्वास मृत्यु है और प्रत्येक नई श्वास पुनर्जन्म है. भीतर आने वाली श्वास पुनर्जन्म है ; बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु  है . बाहर जाने वाली श्वास मृत्यु का पर्याय है ; अंदर आने वाली जीवन का . इसलये प्रत्येक श्वास के साथ तुम मरते हो और फिर जन्म लेते हो . दोनों के बीच का अंतराल बहुत क्षणिक है , लेकिन पैनी दृष्टि , शुद्ध निरिक्षण और अवधान से उसे अनुभव किया जा सकता है . और यदि तुम उस अंतराल को अनुभव कर सको तो शिव कहते हैं कि श्रेयस उपलब्ध है . तब और किसी चीज की जरुरत नहीं है . तब तुम आप्तकाम हो गए . तुमने जान लिया ; घटना घट गयी .

       प्रयोग करो और तुम उस बिंदु को पा लोगे . उसे अवश्य पा सकते हो ; वह है . तुम्हें या तुम्हारी संरचना में कुछ जोड़ना नहीं है ; वह है ही . सब कुछ है ; सिर्फ बोध नहीं है . कैसे प्रयोग करो ? पहले भीतर आने वाली श्वास के प्रति होश पूर्ण बनो . उसे देखो . सब कुछ भूल जाओ और आनेवाली श्वास को , उसके यात्रा - पथ को देखो . जब श्वास नासपुटों को स्पर्श करें  तो उसको महसूस करो . श्वास को गति करने दो और पूरी सजगता से उसके साथ यात्रा करो . श्वास के साथ ठीक कदम से कदम मिलाकर नीचे उतरो ; न आगे जाओ और न पीछे पडो . उसका साथ न छूटे ; बिलकुल साथ-साथ चलो .

      स्मरण रहे , न आगे जाना है और न छाया की तरह पीछे चलना है -- समांतर चलो , युगपत . श्वास और सजगता को एक हो जाने दो . श्वास नीचे जाती है तो तुम भी नीचे जाओ . और तभी उस बिंदु को पा सकते हो जो दो श्वासों  के बीच में है . यह आसान नहीं है . श्वास के साथ अंदर जाओ ; श्वास के साथ बाहर जाओ .

       अगर तुम श्वास के प्रति सजगता का , बोध का अभ्यास करते गए तो एक दिन अनजाने ही तुम अंतराल को पा जाओगे . क्योंकि जैसे-जैसे तुम्हारा बोध तीव्र , गहरा और सघन होगा , जैसे-जैसे तुम्हारा बोध स्पष्ट आकार लेगा -- जब सारा संसार भूल जायेगा ,बस श्वास का आना-जाना ही एकमात्र बोध रह जायेगा -- तब अचानक तुम उस अंतराल को अनुभव करोगे जिसमें श्वास नहीं है.


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