सिद्धार्थ उपनिषद Page 89
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ओशो के समय और उसके बाद के अधिकतर सन्यासी जो ओशो से जुड़े हैं; चाहे उन्होंने ओशो को नहीं भी देखा हो. 90 प्रतिशत इस मत के हैं, कि ओशो के बाद किसी नए बुद्धपुरुष की, किसी संत की जरुरत नहीं है. जो कहना था ओशो कह गए, जो करना था कर गए. और इसीलिए कहीं न कहीं वे महसूस करते हैं, कि ओशोधारा की कोई जरुरत नहीं है. ओशो की जीवंत परंपरा की कोई जरुरत नही है. ये जो विरोध के स्वर हैं, हमेशा उठा है और उठना भी चाहिए. गौतम बुद्ध विदा हो गए उनके 99 संबुद्ध शिष्य और हजारों शिष्यों ने भी यही बात कही; अब किसी और बुद्ध की जरुरत नहीं, किसी और गुरु की जरूरत नहीं, अब किसी परंपरा की जरूरत नहीं. लेकिन मंजूश्री ने कहा अगर गौतम बुद्ध की परंपरा को जीवित रखना है, तो गुरु- शिष्य की परंपरा को आगे बढ़ाना होगा. और मंजूश्री ने अपने आपको सदगुरु घोषित कर दिया. और उस धारा का नाम है महायान. कहा कि जहाज हमेशा चाहिए जिस पर हजारों लोग चढें और पार उतरें. बाकी लोगों ने कहा अब अपनी- अपनी डोंगी से लोग पार करेंगे. जहाज की कोई जरुरत नहीं है. और उनका नाम हुआ हीनयान; हीनयानियों की संख्या शुरू में बहुत ज्यादा रही, क्योंकि आनंद था, कश्यप था, विमलकीर्ति था, पूर्णकाश्यप था, महाकाश्यप था, बहुत सारे लोग थे. सबने कहा अब किसी और सदगुरु की जरुरत नहीं. वो धारा कहलाई आगे चलकर हीनयान और मुश्किल से पचास साल भी नहीं चल पाई. आज जो भी बौद्धों की धारा तुम देखते हो वो महायान की है. दलाई लामा महायानियों की धारा है. और इसमें गुरु- शिष्य की परंपरा आज भी है. झेन फकीरों की धारा ये सब महायानी धारा हैं. और ये महायानी आज भी जिन्दा हैं. जबकि बुद्ध विदा हो गए.
करीब- करीब यही मोहम्मद के बाद हुआ. हजरत मोहम्मद विदा हुए और उनके सभी लोगों ने कहा - आखिरी पैगंबर विदा हो गया अब किसी की कोई जरुरत नहीं है, और सदगुरु की कोई जरुरत नहीं है. लकिन मौला अली ने कहा कि सदगुरु की जरुरत तो हमेशा रहेगी; और वहां से सूफी परंपरा शुरू हुई. जो आज तक जीवंत चल रही है. मोहम्मद साहब के 72 फिरके और हैं. अब मोहम्मद साहब ने कह दिया एक फिरका मेरा सच्चा होगा बाकी सब झूठा होगा. और नतीजा हुआ कि सब फिरकों ने कहा हम असली बाकी सब नकली. लेकिन सच बात तो ये है कि सूफियों की परंपरा ही वह फिरका थी जिसे महायानी कह सकते हो. जो आज चल रही है बाकी सब जीवंतता नेस्तनाबूद हो गई. मानने वाले बहुत हैं, जानने वाले नहीं हैं. और हर बुद्ध पुरुष के बाद एक ही परंपरा बचती है, जिसमे जानने वाले होते हैं. और बाकी सबकी भीड़ है. मोहम्मद साहब को मानने वाले करोड़ों हैं, जानने वालों की परंपरा एक ही है.
गौतम बुद्ध के साथ वही हुआ, मोहम्मद साहब के साथ वही हुआ. और करीब- करीब वही ओशो के साथ हुआ, और होना भी चाहिए था. जैसे बुद्ध के शिष्यों ने विरोध किया मंजूश्री की परंपरा का. वैसे ही ओशो में अगर कोई घोषित करता है कि हम सदगुरु हैं, गुरु- शिष्य की परंपरा चलेगी. तो हीनयानी तो विरोध करेंगे ही. उनको करना भी चाहिए. पहली बात तो मै यह कहता हूँ; ये कोई ऐसा नहीं है कि पहली बार हो रहा है, ऐसा नहीं कोई अनहोनी घट रही है. ऐसा भी मत कहना यह होना नहीं चाहिए. नहीं! यह होना ही चाहिए क्योंकि तभी जीवंतता का कोई मतलब है.
तो निश्चित ही उनमें से कुछ लोग कगार पर होते हैं, तो उन कगार के लोगों को सन्देश देना जरूरी है. इसलिए चिंतन-मनन करना जरूरी है कि कगार पे खड़े लोगों को क्या कहोगे ताकि थोडा जाग जाएं, जाग जाएं तो बात हो जायेगी.