सिद्धार्थ उपनिषद Page 48
सिद्धार्थ उपनिषद Page 48
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जीव का परम विकास ब्रह्म के साथ तादात्म्य है. ' मैं शरीर हूँ ' यह अज्ञान है. ' मैं मस्तिष्क हूँ ' यह विज्ञान है. ' मैं चैतन्य आत्मा हूँ ' यह आत्मज्ञान है. ' मैं ब्रह्म का अंश हूँ ' यह अद्वैत ज्ञान है. ' चैतन्य की दृष्टि से मैं ब्रह्म हूँ ' यह कैवल्य ज्ञान है. ' आनंद की दृष्टि से मैं ब्रह्म हूँ ' यह निर्वाण ज्ञान है. ' प्रेम की दृष्टि से मैं ब्रह्म हूँ ' यह परमज्ञान या परमपद है.
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ब्रह्म विराट वृक्ष की तरह है. नाद उसकी जड़ है. नूर उसका धड़ है. चैतन्य उसकी डाली और पत्तियां हैं. आनंद उसका फूल है. प्रेम उसकी सुगंध है.
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आत्मा की गहराइयों में परमात्मा कि प्यास भरी है. संत रविदास ठीक लहते हैं - ' बहुत जनम बिछुड़े थे माधव, यह जनम तुम्हारे लेखे.' कहीं-न-कहीं इस प्यास से पूरी चेतना आक्रांत है. हमारा मूल परमात्मा है. उससे जुडकर, उसकी याद में जीकर ही यह प्यास बुझ सकती है. यह जुडना ध्यान, सुमिरन और समाधि द्वारा ही संभव है.
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मूल रूप से हमारी आत्मा ही सुमिरन करती ही, लेकिन उस सुमिरन में हमारी चेतना भी संयुक्त होती है और माध्यम बनती है. तभी तो सारे संत अपने मन कों सुमिरन करने के लिए समझाते हैं. कबीर साहब कहते हैं- ' मन बउरा रे गहिओ न राज जहाजु.' गुरुनानक देव कहते हैं- ' सुणि मन मितर पिआरिया, मिलु वेला है इह .' गुरु अमरदास कहते हैं-' मन तू जोति स्वरुप है, अपना मूल पछान.' गुरु रामदास कहते हैं- ' हरि बिनु रहि ना सकै मनु मेरा.' गुरु अर्जुनदेव कहते हैं-' इहु मनु सुन्दरि आपणा हरिनामि मजिठै रंगि री.' गुरु तेगबहादुर कहते हैं- ' सुमिरन कर ले मेरे मना.'