सिद्धार्थ उपनिषद Page 39
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सुमिरन आध्यात्मिक यात्रा का अंतिम चरण है. इसके 9 आयाम हैं : (1) सद्गुरु कृपा (2) सतनाम (3) अहोभाव (4) सहजता (5) गहरी सांस (6) आत्मस्मरण (7) स्रोत (8) मन्त्र (9) सांसारिक उत्तरदायित्व.
1. सद्गुरु कृपा - यह ड्राइविंग लाइसेंस की तरह है. जैसे बिना लाइसेंस के हम कोई भी वाहन नहीं चला सकते, वैसे ही बिना सद्गुरु की कृपा प्राप्त किये हम सुमिरन की यात्रा पर नहीं जा सकते. सद्गुरु का चित्र सदा सारथी की तरह अपने सीने पर धारण करना चाहिए.
2. सतनाम - सद्गुरु से नाम का ज्ञान मिलता है, अर्थात नाम की गाड़ी प्राप्त होती है. गुरु नानक देव जी कहते हैं कि ' नानक नाम जहाज है.'
3. अहोभाव - यह पेट्रोल की तरह है. गाड़ी में जब तक पेट्रोल भरा रहेगा, तभी तक गाड़ी चलती है, वैसे ही अहोभाव के बिना सुमिरन की यात्रा संभव नहीं है.
4. सहजता - यह गाडी के क्लच की तरह है. सहजता का अर्थ है शांत चित्त. सम्यक दृष्टी सहजता की जननी है. परकेंद्रित दृष्टी असम्यक् होती है. स्वकेंद्रित दृष्टी सम्यक् होती है. दूसरे को क्या करना चाहिए अथवा क्या नहीं करना चाहिए, यह सोच असम्यक् दृष्टी है. वर्तमान परिस्थिति में हम क्या कर सकते हैं, यह सम्यक दृष्टी है.
5. गहरी सांस - यह गियर की तरह है. सामान्यतः हम एक मिनट में 20 बार सांस लेते हैं. गुरु गोरखनाथ कहते हैं कि सुमिरन के लिए जरूरी है कि एक मिनट में हम लगभग 15 बार सांस लें. उथली सांस में सुमिरन छूट-छूट जाता है. गहरी सांस सुमिरन के लिए आवश्यक है.
6. आत्मस्मरण - यह स्टियरिंग की तरह है. आत्मस्मरण का अर्थ है अपने निरंकार चैतन्य स्वरुप का स्मरण. आत्मस्मरण के साथ हरिस्मरण को ही ओशो साक्षी सुमिरन कहते हैं, जिसे वे कंठ-सुमिरन, मानसिक-सुमिरन एवं हार्दिक-सुमिरन से ज्यादा शक्तिशाली मानते हैं.
7. स्रोत - यह मंजिल की तरह है. स्रोत का अर्थ है नाद का स्रोत. इसे संतों ने मीन मार्ग भी कहा है. जैसे मछली नदी के उद्गम की ओर यात्रा करती है, वैसे ही साधक को नाद के मूल स्रोत की खोज करनी होती है. उसे खोजते-खोजते सद्गुरुकृपा से वह मूल स्रोत गोविन्द को खोज लेता है.
8. मन्त्र - यह एक्सलेटर की तरह है. मन्त्र का अर्थ है autosuggesion, आत्मसुझाव. सांसों के साथ कोई मन्त्र जोड़ना जरूरी है, जो सुमिरन की प्रक्रिया की याद दिलाता रहता है. यह मन्त्र सद्गुरु देता है.
9. सांसारिक उत्तरदायित्व - यह गाड़ी के ब्रेक की तरह है. जैसे यात्रा में हमें बीच-बीच में खाने-पीने इत्यादि के लिए रुकने की जरूरत पड़ती है, उसी प्रकार सुमिरन से हटकर हमें संसार का भी काम करना चाहिए. जैसे कहीं रुक जाने पर भी हमें अपने मिशन का ख्याल बना रहता है, वैसे ही संसार का काम करते हुए भी साधक को हरिस्मरण बना रहता है.