सिद्धार्थ उपनिषद Page 27
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धर्म के दो आयाम हैं -'अध्यात्म और संस्कृति. अध्यात्म आत्मा है, संस्कृति शारीर है. अध्यात्म ज्योति है, संस्कृति हवाओँ से अध्यात्म की ज्योति की रक्षा करती है. अध्यात्म क्रांति है, संस्कृति परम्परा है.अध्यात्म बीज है, संस्कृति वृक्ष है. अध्यात्म आँख है, संस्कृति पाँव है.
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चैतन्य के कई रूप हैं. श्रोता के रूप में वह दिव्य नाद का श्रवण करता है. दृष्टा के रूप में वह दिव्य आलोक का दर्शन करता है. ध्याता के रूप में वह निर्विचार,निर्विषय,निर्विकार,निराकार के प्रति जागा रहता है. ज्ञाता के रूप में वह अंतराकाश में विद्यमान ओंकार के विभिन्न आयामों -- नाद, नूर, अमृत, ऊर्जा, शक्ति, उमंग, मंगल, स्वाद, गंध, खुमारी, आनंद, प्रेम आदि का साक्षात्कार करता है. शुद्ध बोध के रूप में वह आत्मा है.
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सत्-चित्-आनंद की सांसारिक अभिव्यक्ति है - सत्यम-शिवम-सुन्दरम. सत्यम वही है, जिसमें सत् हो, सार हो, विवेक हो, हंसत्व हो, प्रज्ञा हो. शिवम अर्थात मंगलमय वही है, जिस कृत्य में होश हो, बोध हो. सुन्दरम वही है, जिसे देखकर आनंद हो, मज़ा हो.
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परमात्मा को सच्चिदानंद अर्थात सत्-चित् -आनंद कहा गया है. ये तीनों तत्व तीन आयाम की तरह जाने जाते हैं. लेकिन साधना जब परिपक्व होती है, तो साधक इन्हें तीन सोपान की तरह जान पाता है. सत् अर्थात जो शाश्वत है. लेकिन जो सत् है, वही चैतन्य हो सकता है. चित् अर्थात चैतन्य. लेकिन जो चैतन्य है, वही आनंद हो सकता है. दूसरे शब्दों में कह सकतें हैं कि आनंद चैतन्य का स्वभाव है. ठीक यही बात प्रेम एवं मंगल के लिए भी कही जा सकती है. अर्थात आनंद का ही अगला विकास प्रेम है और प्रेम का ही अगला विकास मंगल है.