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    ब्राह्मण महाभिमानी रहा है - ओशो

     

    Brahmin has been proud - Osho

    ब्राह्मण महाभिमानी रहा है - ओशो 

    शांत स्वभाव और ब्राह्मण? तो ये दुर्वासा जैसे ऋषि किसने पैदा किए? जो जरा सी बात में अभिशाप दे डालें। और ऐसे अभिशाप कि इस जन्म में नहीं, अगले जन्मों तक बिगाड़ दें। जन्मों-जन्मों तक तुम्हारा पीछा करें। और ये ब्राह्मण हैं! ब्राह्मण ही नहीं हैं, ऋषि हैं, मुनि हैं। और इनको अभी भी ऋषि-मुनि कहने में किसी को शर्म नहीं, किसी को संकोच नहीं। तुम जरा अपने ऋषि-मुनियों की कथाएं तो पढ़ो। अपने ब्राह्मणों का पिछला हिसाब-किताब तो देखो। इनमें तुम्हें शांत स्वभाव लोग मिलेंगे? न तो बुद्ध ब्राह्मण हैं, न महावीर ब्राह्मण हैं। 

            इस देश में जिन्होंने शांति को उपलब्ध किया है, उनमें ब्राह्मणों का कहीं नाम नहीं आता, कहीं उल्लेख नहीं आता। ब्राह्मण महाभिमानी रहा है। स्वभावतः, वह शिखर पर था। वह सबके सिर पर बैठा था। अभिमान बिलकुल स्वाभाविक था। हां, विनम्रता का ढोंग करता है। क्यों? क्योंकि विनम्रता को ही सम्मान मिलता है। इस गणित को समझो। विनम्रता को सम्मान मिलता है इसलिए विनम्र हो जाता है। लेकिन सम्मान पाने की आकांक्षा में यह विनम्रता है। 

            एक सज्जन ने, चंद्रकांत त्रिवेदी ने प्रश्न पूछा है कि आप में विनम्रता नहीं दिखाई पड़ती। जब आप कहते हैं-- 'मेरे संन्यासी', तो यह तो अहंकार हो गया। इस बात में सचाई है। मुझमें विनम्रता बिलकुल नहीं, क्योंकि विनम्रता तो केवल अहंकार का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। अहंकार ही नहीं तो विनम्रता मुझमें कैसे होगी? मैं विनम्र बिलकुल नहीं हूं। मैं तो जैसा हूं वैसा हूं। न अहंकारी हूं, न विनम्र हूं। रह गए 'मेरे संन्यासी' तो क्या मैं यह कहूं कि चंद्रकांत त्रिवेदी, _ 'तुम्हारे संन्यासी'? सिर्फ विनम्र होने के लिए! भाड़ में जाए ऐसी विनम्रता। मुझे न कोई सम्मान चाहिए, इसलिए क्यों विनम्र होने का धोखा-धंधा करूं? सच्ची बात कहूंगा। मेरे संन्यासी हैं, अब मैं करूं क्या? मैं नहीं हूं, मगर संन्यासी तो मेरे हैं। मैं नहीं हूं, इसीलिए तो ये मेरे संन्यासी हैं। यह ' मेरे' तो केवल भाषा की बात है। अब क्या सिर्फ इससे बचने के लिए यह कहं कि 'आपके संन्यासी'? नहीं, ऐसी विनम्रता, ऐसी कर्तव्यपरायणता, ऐसी शांति में मेरा कोई भरोसा नहीं।

    - ओशो 

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