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    प्राणों की आतुरता - ओशो

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    प्यारी कुसुम, प्रेम। 

            एक ऐसा संगीत भी है, जहां कि स्वर नहीं है। प्राण उस स्वर शून्य संगीत के लिए ही आतुर है। एक ऐसा प्रेम भी है, जहां कि शरीर नहीं है। प्राण उस शरीर मुक्त प्रेम के लिए ही आतुर है। एक ऐसा सत्य भी है जहां कि आकार नहीं है। प्राण उस निराकार सत्य के लिए ही आतुर है। इसीलिए, स्वरों से तृप्ति नहीं होती है। इसीलिए, शरीरों से संतोष नहीं होता है। इसीलिए, आकार से आत्मा नहीं भरती है। लेकिन, इस अतृप्ति, इस संतोष को ठीक से पहचानना आवश्यक है। क्योंकि, वह पहचान ही अंततः अतिक्रमण तिंदेवमदकमदवम)बनती है। फिर स्वर ही स्वर शून्यता का द्वार बन जाता है। और शरीर ही अशरीरी का मार्ग बन जाता है। और आकार ही निराकार हो जाता है। 


    रजनीश के प्रणाम
    १३-५-७० प्रति : सुश्री कुसुम वहन, लुधियाना

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