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    कोई मनुष्य किसी दूसरे जैसा बनने को पैदा भी नहीं हुआ - ओशो

    No-man-was-even-born-to-be-like-anyone-else--Osho


    कोई मनुष्य किसी दूसरे जैसा बनने को पैदा भी नहीं हुआ - ओशो 

    पहला सींखचा है हमारे बंधन का, वह है श्रद्धा। 

             नहीं, श्रद्धा नहीं चाहिए। चाहिए, सम्यक संदेह, राइट डाउट। चाहिए स्वस्थ संदेह। इन मुल्कों में हम देखें, जहां श्रद्धा का प्रभाव रहा, वहां विज्ञान का जन्म नहीं हो सका। आगे भी नहीं हो सकेगा, क्योंकि जहां श्रद्धा बलवती है, वहां खोज ही पैदा नहीं होती। जिन मुल्कों में विज्ञान का जन्म हुआ, वह तभी हो सका, जब श्रद्धा के सिंहासन पर संदेह विराजमान हो गया। आज भी जो कौमें विज्ञान की दृष्टि से पिछड़ी हैं, वे ही कौमें हज, तीर्थ वाली हैं.

              जिनका विश्वास पर आग्रह है। और न केवल विज्ञान के लिए यह बात सच है, धर्म के लिए भी उतनी ही सच है, क्योंकि धर्म तो परम विज्ञान है , वह तो सुप्रीम साइंस है। वैज्ञानिक तो फिर भी हाइपोथीसिस को मानकर चलता है, थोड़ा बहुत। एक अनुमान स्वीकार करता है, एक परिकल्पना स्वीकार करता है। लेकिन धर्म को खोजी परिकल्पना को भी स्वीकार नहीं करता। कुछ भी स्वीकार नहीं करता। निपट, सहज जिज्ञासा को लेकर गतिमान होता है। प्रश्न तो उसके पास होते हैं, उत्तर उसके पास नहीं होते। पूछता है जीवन से। खोजता है, बाहर और भीतर और बिना कुछ स्वीकार किये खोजता चला जाता है, खोजता चला जाता है, जब स्वीकार नहीं करता है तो उसकी खोज की मेधा तीव्रतर होती चलती जाती है, इनटेंस से इनटेंस होती चली जाती है। और एक दिन उसकी यह प्यास और खोज इतनी गहनतम, इतनी चरम तीव्रता को उपलब्ध हो जाती है कि उसी चरम तीव्रता में, उसी चरम तीव्रता के उ त्ताप में एक द्वार खुल जाता है और वह जानने में समर्थ होता है। जिज्ञासा चाहिए, विश्वास नहीं। और विश्वास हमारा पहला बंधन है, जो हमें चारों तरफ से बांधे हुए हैं।

              ठीक उस के साथ ही बंधा हुआ दूसरा बंधन है, जिसने हमारा कारागृह बनाया और वह है अनुगमन, फालोइंग, किसी दूसरे के पीछे चलना।  किसी को मान लेना विश्वास से किसी के पीछे चलना अंधानुकरण है। और इधर हजारों वर्षों से में यह सिखाया जाता रहा है कि दूसरों के पीछे चलो, दूसरे जैसे बनो-राम जैसे बनो, कृष्ण जैसे बनो, बुद्ध जैसे बनो। और अगर पुराने नाम फीके पड़ गए हैं तो हमेशा नए नाम मिल जाते हैं कि गांधी जैसे बनो, विवेकानंद जैसे बनो। लेकिन आज तक किसी ने नहीं कहा कि हम अपने जैसे बनें। किसी दूसरे जैसा कोई क्यों बने? और क्या यह संभव है कि कोई किसी दूसरे जैसा बन सके। क्या यह आज तक कभी संभव हुआ है कि दूसरा राम पैदा हो? कि दूसर  बुद्ध, कि दूसरा क्राइस्ट। क्या तीन चार हजार वर्ष की नासमझी भी हमें दिखाई नहीं पड़ती? क्राइस्ट को हुए दो हजार साल हो गए, और कितने पागलों ने यह कोशि श नहीं की कि वह क्राइस्ट जैसे बन जाएं। लेकिन क्या कोई दूसरा क्राइस्ट बन सका ? नहीं बन सका। क्या इससे कुछ बात स्पष्ट नहीं होती है? क्या यह स्पष्ट नहीं होता कि हर मनुष्य एक अद्वितीय, यूनीक व्यक्तित्व है? कोई मनुष्य किसी दूसरे जैसा  बनने को पैदा भी नहीं हुआ?

    - ओशो 


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