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    सूफीमत एवं इस्लामिक दर्शन

               सूफीमत इस्लामिक दर्शन का उदारवादी उत्तर स्वरूप है | यह इस्लाम की कुरान की कट्टरपंथी मान्यताओं के विरोध में अरब में ही प्रवर्तित हुआ जिसका विकास फारस में जा कर हुआ |

     सूफी शब्द का मूल स्त्रोत :----

                विद्वानों में सूफी शब्द के सम्बन्ध में शुरू से ही विवाद चला आ रहा है | सूफी शब्द की व्युत्पत्ति "सूफ" शब्द से मना जाता है जिसका अर्थ ऊन होता है | फारस में रहस्यवादी साधकों को "पश्मीना पोश" अर्थात ऊन धारण करने वाला कहा गया है | प्रारम्भिक काल  में सूफी एक विशेष प्रकार के ऊनी वस्त्र धारण किया करते थे इसलिए उन्हें सूफ के कारण सूफी संज्ञा दी गयी |

     सूफी मत का प्रारम्भ ;--

               सूफी मत का इतिहास मुहम्मद साहेब के हिजरत (सन ६२३ ई०) से प्रारम्भ होता है | प्रारम्भ में यह एक इस्लामी प्रवृति मूलक धर्म मात्र था | इसमें लेशमात्र भी दर्शन का पुट नहीं था | धीरे धीरे बाद में इसमें कुछ ऐसे व्यक्ति आये जिससे इनमे भक्ति भावना का सन्निवेश हुआ | इन्होने आत्म शुद्धि पर बल दिया |  इनमे बसरा के "अलहसन" ( ६५३ ई० से ७२८ ई० ) , "इब्राहिम-बिन-अदम" (मृत्यु ८०१ ई० ) और राबिया (८०१ ई०) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं | राबिया के पूर्व के सूफियों ने केवल अंतःकरण की शुद्धि पर जोर दिया था परन्तु राबिया ने सर्वप्रथम प्रेम के दर्शन के उद्दात एवं प्रखर  स्वरूप को सामने लाया और सूफी मत को एक नया मोड़ दिया | उन्होंने कहा कि -- "अए खुदा के रसूल ! तुम्हे कौन प्यार नहीं करता ? परन्तु परमेश्वर के प्रेम से मेरा ह्रदय इतना परिपूर्ण है कि इसमें अन्य के लिए प्रेम या घृणा का भाव आता ही नहीं " | इस तरह हम कह सकते हैं कि राबिया ने सूफी मत में माधुर्य भाव  को उद्भूत करने का सर्वप्रथम  श्रेय पाया | जिसमे शामी परम्परा के "इश्क" को सूफी मत में पुनर्जीवन दिया | राबिया की सूफी मत में यह एक नयी देन थी जिसमे  ईश्वरोपासना में किसी मधयस्थ की अनावश्यकता और निष्काम भावना थी |

    सूफी मत पर अन्य धर्मों का प्रभाव :--

                सूफी मत पर ईसाई   , नव अफलातूनी और भारतीय वेदांत , बौद्ध तथा जैन दर्शन का भी प्रभाव पड़ा है |  " जुन्नैद शिबली " और " मंसूर हिल्लाज " ने उपरोक्त दर्शनों से प्रभावित हो कर सूफी मत को एक नयी दिशा प्रदान की | मंसूर ने कहा " अन-अल-हक़ " अर्थात मै ही खुदा हूँ | वह निराधार एवम् सर्वाधार है | उसके कोई औलाद नही और न वह किसी का औलाद है | उसकी समता कोई नहीं कर सकता | मंसूर का यह अन-अल- हक़ वेदांत के "अहम् ब्रह्मास्मि " से प्रभावित है |

     सूफी मत और भारतीय वैदिक चिन्तनधारा :--

                 आत्मा, परमात्मा, सृष्टि रहस्य , जीवन का चरम लक्ष्य इत्यादि विचारधाराएँ  जिनमे सूफियों के बीच में भी  काफी मतभेद हैं , भारतीय वेदांत के अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत  आदि के साथ बहुत साम्यता है | इब्तुल अरबी परमात्मा के बारे में  कहता है "हमावुस्त" अर्थात सब कुछ वही है जिसके सम्बन्ध में कुरान की आयत भी  कहती है --"इन्नाखिलाह " और "इन्ना-इल्लैहे राजयून" अर्थात हम परमात्मा से पैदा हुए हैं और परमात्मा में ही लौट जायेंगे | परमतत्व सम्बन्धी यह विचार तैत्त्रियोपनिषद के इस अनुवाक से बहुत कुछ मिलता है --

                 " यतो वा  इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति |
               
                 यत्प्रय्न्त्यमिशंविशन्ति | तद्धि जिज्ञासस्व | तद् ब्रह्मेति |

    अर्थात " जिससे ही ये सर्वभूत उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न रहने पर जिसके आश्रय पर वे जीवित रहते हैं और अंत में विनाशोंमुख हो कर जिसमे ये लीन होते हैं उसे विशेष रूप जानने की इच्छा कर वही ब्रह्म है |"
      
                   सूफियों का यह कथन "कि वास्तव में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ही आत्मा है जो विभिन्न पदार्थों और जीवों के रूप में अभिव्यक्त होती है |" श्वेताश्वतर उपनिषद के अध्याय ६ ,मंत्र ११ से मिलता जुलता है | इसी प्रकार "जिल्ली " का परमात्मा और सृष्टि विषयक विचार छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय ६, प्रथम खंड के मंत्र (४-६) में स्पष्टरूप से प्रतिध्वनित  हो रहा है | इस प्रकार हम देखते हैं कि सूफियों और उपनिषद की सृष्टि विषयक  विचारधाराओं में समानता है और उन पर इसकी स्पष्ट छाप है |

      भारतीय योग साधना और सूफी मत :--

                    सूफी मत पर योग साधना का भी प्रभाव देखने को मिलता है | "लतायफीसित्ता " नामक सिद्धांत सूफियों में प्रचलित है | सूफी, जिक्र (ध्यान) आदि की क्रियाओं द्वारा एक के बाद एक "लतीफ" को जाग्रत करने में सफल होते हैं और अंत में उन्हें प्रकाश के दर्शन होते हैं |
    जैसे-जैसे सालिक (साधक) ऊपर की ओर बढ़ता है वह विभिन्न रंगों के दर्शन करता है | इस तरह साधक को  सित्ता (६) लतीफों को जाग्रत करना पड़ता है | इस सिद्धांत के प्रवर्तक ग्यारहवीं शताब्दी के शेख अहमद नक्शबंदी थे | "लतायाफी सित्ता " सिद्धांत कुण्डलिनी चक्र के सिद्धांत से बहुत कुछ मिलता जुलता है | इसकी नफ्स , कल्ब , रूह , सिर्र ,ख़फी और अल्फ़ा ये ६ अवस्थाएं मूलाधार ,स्वाधिष्ठान, मणिपूर ,अनाहत ,विशुद्ध और आज्ञा चक्रों से साम्यता रखती हैं |

     सूफी मत और बौद्ध दर्शन :---

                      बौद्ध दर्शन का चरम लक्ष्य निर्वाण है  | सूफी मत में इसे "फना" फील्लाह कहते हैं | उनके मत में परमात्मा ही परम सत्य है और उसी में विलीन होना उनका परम लक्ष्य है | इसके लिए वे संसार और भावी जीवन के प्रति अनासक्त हो जाते हैं | यह भावना बौद्ध दर्शन का ही प्रभाव है | बौद्धों कि ध्यान और समाधि की कल्पना सूफियों में "मर्कबा" के रूप में जानी जाती है |बौद्धों का एकांत सेवन सूफियों में "खिलवत" नाम से व्यवृहत है |

      सूफी मत का आध्यात्मिक स्वरूप :--

      (१) परम तत्व :-----
      
       परम तत्व को मानने वाले तीन प्रकार के मुस्लिम दार्शनिक हैं ---

     इजादिया ( एकेश्वरवादी ) , शदूदिया (सर्वात्मवादी ) और वुजुदिया ( एकात्मवादी )

                    इजादिया ईश्वर के अस्तित्व को जगत से अलग मानते हैं | उनके अनुसार सृष्टि को ईश्वर ने शून्य से उत्पन्न किया है | इसे शुद्ध एकेश्वरवाद कह सकते हैं | उनके अनुसार जीवात्मा ,परमात्मा , और जगत तीनो अलग- अलग तत्व हैं | शदूदिया लोगों का विश्वास है कि ईश्वर इस जगत से परे है | उसकी सारी बातें किसी दर्पण के भीतर प्रतिबिम्ब रूप में दृष्टिगोचर हो रही हैं | इसे सर्वात्मवाद नाम से जाना जाता है | वजूदिया लोगों के मत में ईश्वर  के सिवाय इस संसार में कोई अन्य वस्तु नहीं है | वही एकमात्र सत्ता है | इस विश्व की अन्य सारी वस्तुये उसी का रूप मात्र हैं | इन्हें हम तत्ववादी कह सकते हैं |

                   सूफियों का इजादिया यानि एकेश्वरवाद से मेल नही खाता किन्तु शदूदिया (सर्वत्मवादी) और वुजुदिया (एकात्मवादी) उनके अनुकूल हैं |

                  ईश्वर इस संसार में व्याप्त है या इससे पृथक ,इस सम्बन्ध में उनमे पांच विचारधाराएँ हैं ------

                पहली  विचारधारा के अनुसार ईश्वर संसार से पृथक रह कर भी उसमे लीन है |वह जगत में अंतरात्मा के रूप में परिव्याप्त है |
                दूसरी विचारधारा के मानने वाले ईश्वर और जगत को समपरिमाण स्वरूप मानते हैं | ये सर्वात्मवादी हैं |
                 तीसरी विचारधारा ईश्वर और जगत पृथक सत्ता नहीं है ऐसा मानता है | वह ईश्वर को ही जगत का रूप मानता है |
                  चौथी विचारधारा के अनुसार ईश्वर और जगत दो भिन्न वस्तुएँ हैं |
                  पांचवी विचारधारा उपर्युक्त चारों मतों से भिन्न है | वह ईश्वर को न तो जगत में लीन मानता है और न उससे पृथक | वह बाहर -भीतर जैसे शब्दों से व्यक्त नहीं किया जा सकता | परम तत्व तो एक साथ भीतर और बाहर दोनों जगह रह सकता है |

    बिपिन कुमार सिन्हा