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    विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 19

    विज्ञान भैरव तंत्र - विधि 19

    (" पांवों या हाथों को सहारा दिये बिना सिर्फ नितंबों पर बैठो . अचानक केंद्रित हो जाओगे .")


    चीन में ताओवादियों ने सदियों से इस विधि का प्रयोग किया है . यह एक अद्भुत विधि है और सरल भी . इसमें करना क्या है ? इसके लिए दो चीजें जरूरी हैं . एक तो बहुत संवेदनशील शरीर चाहिए , जो कि तुम्हारे पास नहीं है . तुम्हारा शरीर मुर्दा है . वह एक बोझ है , संवेदनशील बिलकुल नहीं है . इसलिए पहले तो उसे संवेदनशील बनाना होगा , अन्यथा यह विधि काम नहीं करेगी . मैं पहले तुम्हें बताऊंगा कि शरीर को संवेदनशील कैसे बनाया जाए -- खासकर नितंब को . तुम्हारा जो नितंब है वह तुम्हारे शरीर का सबसे संवेदनहीन अंग है . उसे संवेदनहीन होना पड़ता है , क्योंकि तुम सारा दिन नितंब पर ही बैठे रहते हो . अगर वह बहुत संवेदनशील हो तो अड़चन होगी . तुम्हारे नितंब को संवेदनहीन  होना जरूरी है . पाँव के तलवे जैसी उसकी दशा है . निरंतर उन पर बैठे-बैठे पता नहीं चलता कि तुम नितंबों पर बैठे हो . इसके पहले क्या कभी तुमने उन्हें महसूस किया है ? अब कर सकते हो , लेकिन पहले कभी नहीं किया . और तुम पूरी जिंदगी उन पर ही बैठते रहे हो -- बिना जाने . उनका काम ही ऐसा है कि वे बहुत संवेदनशील नहीं हो सकते .

    तो पहले तो उन्हें संवेदनशील बनाना होगा . एक बहुत सरल उपाय काम में लाओ . यह उपाय शरीर के किसी भी अंग के लिए काम आ सकता है . तब शरीर संवेदनशील हो जायेगा . एक कुर्सी पर विश्रामपूर्वक , शिथिल होकर बैठो . आँखें बंद कर लो और शिथिल होकर कुर्सी पर बैठो . और बाएं हाथ को दाहिने हाथ पर महसूस करो . कोई भी चलेगा . बाएं हाथ को महसूस करो . शेष शरीर को भूल जाओ और बाएं हाथ को महसूस करो .

     तुम जितना ही उसे महसूस करोगे वह उतना ही भारी होगा . ऐसे बाएं हाथ को महसूस करते जाओ . पूरे शरीर को भूल जाओ . बाएं हाथ को ऐसे महसूस करो जैसे तुम बायां हाथ ही हो . हाथ ज्यादा से ज्यादा भारी होता जायेगा . जैसे-जैसे वह भारी होता जाए वैसे-वैसे उसे और भारी महसूस करो . और तब देखो कि हाथ में क्या हो रहा है . जो भी उत्तेजना मालूम हो उसे मन में नोट कर लो --कोई उत्तेजना , कोई झटका , कोई हलकी गति , सबको मन में नोट करते जाओ . इस तरह रोज तीन सप्ताह तक प्रयोग जारी रखो . दिन के किसी समय भी दस-पन्द्रह मिनट तक यह प्रयोग करो . बाएं हाथ को महसूस करो और सारे शरीर को भूल जाओ. तीन सप्ताह के भीतर तुम्हें अपने एक नए बाएं हाथ का अनुभव होगा . और वह इतना संवेदनशील होगा , इतना जीवंत . और तब तुम्हें हाथ की सूक्ष्म और नाज़ुक संवेदनाओं का भी पता चलने लगेगा . जब हाथ सध जाए तो नितंब पर प्रयोग करो .तब यह प्रयोग करो : आँखें बंद कर लो और भाव करो कि सिर्फ दो नितंब हैं , तुम नहीं हो . अपनी सारी चेतना को नितंब पर जाने दो . यह कठिन नहीं है . अगर प्रयोग करो तो यह आश्चर्यजनक है , अद्भुत है . उससे शरीर में जो जीवन्तता का भाव आता है वह अपने आप में बहुत आनंददायक है . और जब तुम्हें अपने नितंबों का एहसास होने लगे , जब वे खूब संवेदनशील हो जाएं , जब भीतर कुछ भी हो उसे महसूस करने लगो , छोटी सी हलचल , नन्हीं सी पीड़ा भी महसूस करने लगो , तब समझो कि तुम्हारी चेतना नितंबों से जुड़ गई . इस विधि में प्रवेश करने के लिए तुम्हें कम से कम छह सप्ताह की तैयारी चाहिए -- तीन सप्ताह हाथ के साथ और तीन सप्ताह नितंबों के साथ . उन्हें ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनाना है . बिस्तर पर पड़े-पड़े शरीर को बिलकुल भूल जाओ , इतना ही याद रखो कि सिर्फ दो नितंब बचे हैं . स्पर्श अनुभव करो-- बिछावन की चादर का , सर्दी का या धीरे-धीरे आती हुई  उष्णता का . अपने स्नान टब में पड़े-पड़े शरीर को भूल जाओ , नितंबों को ही स्मरण रखो , उन्हें महसूस करो . अपनी प्रेमिका , पत्नी या पति के साथ नितंब से नितंब मिलाकर खड़े हो जाओ और एक-दूसरे को नितंबों के द्वारा महसूस करो . यह विधि महज तुम्हारे नितंब को पैदा करनेके लिए है , उन्हें उस स्थिति में लाने के लिए है जहाँ वे महसूस करने लगें .

    और तब इस विधि को काम में लाओ : " पांवों या हाथों को सहारा दिये बिना... " जमीन पर बैठो , पांवो या हाथों के सहारे के बिना सिर्फ नितंबों के सहारे बैठो . इसमें बुद्ध का पद्मासन काम करेगा या सिद्धासन या कोई मामूली आसन भी चलेगा . लेकिन अच्छा होगा  कि हाथ का उपयोग न करो . सिर्फ नितंबों के सहारे रहो , नितंबों पर ही बैठो . और तब क्या करो ? आँखें बंद कर लो और नितंबों का जमीन के साथ स्पर्श महसूस करो . और चूंकि नितंब संवेदनशील हो चुके हैं इसलिए तुम्हें पता चलेगा कि अब नितंब जमीन को अधिक स्पर्श कर रहा है . इसका अर्थ हुआ  कि तुम एक नितंब पर ज्यादा झुके हुए हो और दूसरा जमीन से कम सटा है . और तब दूसरे नितंब पर झुक जाओ . फिर तुरंत ही पहले पर वापिस आ जाओ . इस तरह एक से दूसरे नितंब पर बारी-बारी से झुकते जाओ और तब धीरे-धीरे संतुलन लाओ . संतुलन लाने का अर्थ है कि तुम्हारे दोनों नितंब एक सा अनुभव करते हैं . दोनों के भीतर तुम्हारा भार बिलकुल समान हो . और जब तुम्हारे नितंब संवेदनशील हो जायेंगे तो यह संतुलन कठिन नहीं होगा . तुम्हें उसका एहसास होगा .  और एक बार दोनों नितंब संतुलन में आ जाएं तो तुम केन्द्र पर पहुँच गए . उस संतुलन से तुम अचानक अपने नाभि-केन्द्र पर पहुँच जाओगे और भीतर केंद्रित हो जाओगे . तब तुम अपने नितंबों को भूल जाओगे , अपने शरीर को भूल जाओगे , तब तुम अपने आंतरिक केन्द्र पर स्थित हो जाओगे .

       इसी वजह से मैं कहता हूँ कि केन्द्र नहीं , केंद्रित होना महत्वपूर्ण है . चाहे यह घटना हृदय में या सिर में या नितंब में घटित हो , उसका महत्व नहीं है . तुमने बुद्धों को बैठे देखा होगा . तुमने नहीं सोचा होगा कि वे अपने नितंबों  का संतुलन किये बैठे हैं . किसी मंदिर में जाओ और महावीर को बैठे देखो या बुद्ध को बैठे देखो , तुमने नहीं सोचा होगा कि यह बैठना नितंबों का संतुलन भर है . यह वही है ! और जब असंतुलन न रहा तो संतुलन से तुम केंद्रित हो गए .


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