सिद्धार्थ उपनिषद Page 01
(1)
यह सृष्टि प्रभु के प्रेम की अभिव्यक्ति है। तुम जो चाहो , वह सबकुछ देने को राजी है। स्वस्थ जीयो । सन्कल्पना में जीयो । अतिरेक में जीओ । वैभव में जीओ , ऐश्वर्य में जीओ । उदारता में जीओ । सन्वेदना में जीओ । प्रेम में जीओ । अहिंसा में जीओ । हमारी सन्कल्पना के अनुसार स्वतः ही हमारा पुरुषार्थ एवं प्रकृति का आयोजन होता जाता है।
(2)
अतीत एवं भविष्य में दुख है। वर्तमान में आनन्द है। इसलिये वर्तमान में रहकर जीने का मजा लो ।
(3)
सहज रहो , मस्त रहो , सुमिरन में रहो। विपरीत परिस्थितियों में भी सहज रहना , मस्त रहना , सुमिरन में रहना सम्यक् दृष्टी है।
(4)
ज्ञान सोपान है , प्रेम मन्जिल है। विराट से प्रेम हमें विराट बना देता है।
(5)
जैसे हमारे चारों तरफ थलमन्डल , जलमन्डल ,वायुमंडल एवं नभमन्डल हैं , वैसे ही नाद से गुन्जित सहजमन्डल के रुप में सर्वत्र सर्वव्यापी गोविन्द विद्यमान है।
(6)
ज्ञाता( आत्मा ) का स्मरण ध्यान है , ज्ञेय( हरि ) का स्मरण सुमिरन है , और जानना मात्र (ज्ञान ) समाधि है । सुमिरन आत्मा का भोजन है। साक्षी होकर सुमिरन करें। सुमिरन में जीना स्वर्ग है। सुमिरन से हट जाना नर्क है।