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    गुरु कृपा ही केवलं

    गुरु कृपा ही केवलं


    गुरु कृपा ही केवलं



               सद्गुरु शंकराचार्य जी के पास गिरि नामक एक बालक उनकी सेवा में था. नीर-अक्षर होते हुए भी गिरि अत्यंत सेवाभावी,मृदुभाषी एवं विनीत स्वभाव का था. वह पूर्ण मनोयोग से गुरु की सेवा करता था, यद्यपि वह गुरु के उपदेशों को समझ नहीं पता था, फिर भी ध्यानपूर्वक सुनता था. एक दिन प्रवचन के समाये गुरु इधर उधर देखने लगे, उन्होंने अपने सिसयो से पोंछा " आअज गिरि दिखाई नहीं पड़ रहा है" इस पर कुछ सिस्यों ने कहा की वह नदी के किनारे कपडे साफ़ कर रहा होगा. कई शिष्यों ने वयंग से कहा कि गुरुदेव आप उपदेश दीजिये गिरी तो अपरध है, वह तो समझ भी नहीं पाएगा, फिर उसका इंतजार क्यों कर रहे हैं?  गुरु जी ने कहा उससे आने दो, भले ही वह कुछ न समझ पाए, पर बड़ी लगन के साथ वह उपदेश सुनता है. 
              गिरि का गुरु चरणों के प्रति प्रेम एवं उसकी सेवा से गुरु प्रसन्न थे, उस पर गुरु की ऐसी कृपा हुई कि उसी छरड़ वह सरविद्या का ज्ञाता हो गया और वहीँ कपडे धोते-धोते " त्रोटक" छंद में " गुरु महातम्य" पार्क एक श्लोक की रचना कर डाली, और गुनगुनाते हुए गुरु के समीप पहुँच और उनके सम्मुख उसका पाठ किया. अनपढ़ गिरि की इस प्रतिभा को देख कर सभी सिस्य ास्चरा-चकित रह गए. गुरु कृपा से एक ही पल में उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया. आगे चल कार्याही गिरि "त्रोटकाचार्य" के नाम से प्रसिद्द हुआ. तथा सद्गुरु जी के चार प्रमुख सिसयो में एक हुआ, तथा जोतिर मठ का आचार्य बना.