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    अनहद को न जानना ही नरक है

    अनहद को न जानना ही नरक है

    अनहद को न जानना ही नरक है

    बाजत अनहद ढोल रे "रास गगन गुफा में अजर झरे'न. बीन बजा झंकार उठे जह'न समुझि पर जब ध्यान धरे" 'सुनो भाई साधो' प्रवचन माला में परम सद्गुरु प्यारे ओशो कहते है :- कोई बाजा नहीं'न, कुछ बाज नहीं'न रहा, कोई टकराहट नहीं'ं और अनंत ध्वनि का उद्घोष हो रहा है.उसका नाम ओम्कार है. सारे संसार में जब कोई दशवे'न द्वार [क्राउन सेण्टर] पर पहुँचता है तो वह ध्वनि सुनाई पड़ती है हिन्दुओ'ं ने उसे 'ॐ' कहा है. मुस्लमान,क्रिस्टियन,यहूदी उसे 'ोमिन' कहते है'न जब समझ में आने लगता है तब जब समझ में आने लगता है तब आदमी उस पर ध्यान धर्ता है . बज तो वह सदा रहा है . वह झंकार तो गूँज ही रही है,वह झांकर ही तुम हो. वह झंकार इस समय भी तुम्हारे भीतर गूँज रही है, जब सद्गुरु की कृपा से समझ में आता है तो उस तरफ हमारा ध्यान जाता है.

    दोपहर की शांति. उजली धूप और पौधे सोये-सोये से. एक जामुन की छाया तले दूब पर आ बैठा हो'न. रह-रहकर पत्ते ऊपर गिर रहे है'न -- अंतिम, पुराने पत्ते मालूम होते है'न. सरे वृक्षो'न पर नै पत्तिया'न आ गई है'न. और नै पत्तियो'ं के साथ न मालूम कितनी नै चिड़ियों'ं और पछियो'ं का आगमन हुआ है. उनके गीतों'ं का जैसे कोई अंत ही नहीं'ं है. कितने प्रकार की मधुर ध्वनियां'न इस दोपहर को संगीत दे रही है'न,सुनता हु'ं और सुनता रहता हूँ'ं और फिर मै भी एक अभिनव संगीत लोक में चला जाता हो'न." स्व" का लोक संगीत का लोक ही है. यह संगीत प्रत्येक के पास है. इसे पैदा नहीं'न करना होता है. वह सुन परे, इसके लिए केवल मौन होना होता है. चुप होते ही कैसा एक पर्दा उठ जाता है! जो सदा से था, वह सुन पड़ता है और पहली बार ज्ञात होता है की हम दरिद्र नहीं'ं है'न. एक अनत संपत्ति का पुनर'अधिकार मिल जाता है. फिर कितनी हंसी आती है - जिसे खोजते थे, वह भीतर ही बैठा था.

    प्यारी शिरीष, प्रेम. शून्य में प्रवेश के पूर्व अति-सूक्ष्म शब्द की अनुभूति होती है. वह शब्द अर्थातीत, पर अपूर्व शांति'दै होता है. ध्वनि-तरंगे [साउंड वेव्स] अस्तित्व के संगठक विद्युत्कण-तरंगो'न [क्वांटा] के लयबद्ध नृत्य में फलित होती है'न. अस्तित्व का परमाणु-परमाणु अनंत नृत्य में'न लीं है. बहार-भीतर समस्त आयामों'न [डाइमेंशन्स] में'न अनादि-अनंत संगीतोत्सव चल रहा है.हम उलझे होते है'न व्यर्थ के दैनन्दिन शोर'गुल में'न, इसलिए उस संगीत का साक्षात्कार नहीं'न हो पता है. ध्यान में'न -- जो सदा है, उसकी पुनः प्रतीति प्रारम्भ होती है. उस द्वार के ही तू निकट है, इसलिए अहर्निश नाद की वर्षा हो रही है. उसमे ज्यादा-से-ज्यादा लीं हो -- उसे ज्यादा-से-ज्यादा सुन और उसमे डूब. यही मूल शब्द है. यही बीज मंत्र है. यही वेद है. और, इसके भी पार जो है, वही ब्रह्म है. के : एक पत्र में आपने लिखा था, वह याद आया-- "जीवन को संगीत पूर्ण बनाओ, ताकि काव्य का जन्म हो सके. और फिर सौंदर्य ही सौंदर्य है, और सौंदर्य ही परमात्मा का स्वरुप है." क्या आप संगीत, काव्य और सौंदर्य पर कुछ कहना चाहेंगे? अंततः सब कुछ परमात्मा मय हो जाये, इसके लिए क्या यह तीन बातें साधनी है ?

    ओशो : साधना एक है, शेष दो अपने आप चले आते है. शेष दो परिणाम है. बीज तो एक ही बोना है, फिर उस बीज में बहुत से पत्ते लगते है, बहुत शाखायें-प्रशाखाएं, फल और फूल. बीज एक ही बोना है. एक ही साधना है-- "इक साधे सब साढे, सब साधे सब जाये". तीन को साधने में पारो, उलझ जाओगे. क्योंकि वे तीन भिन्न-भिन्न नहीं'ं है'न, वे एक दुसरे से सम्बंधित है'न, एक की ही शृंखला है'न. संगीत साधना है. संगीत की साधना से अपने आप काव्य का आविर्भाव होता है. काव्य है संगीत की अभिव्यक्ति. काव्य है संगीत की देह. और जैसे ही संगीत का जन्म होता है, वैसे ही सौंदर्य का बोध होता है. संगीत की संवेदनशीलता में ही जो अनुभव होता है अस्तित्व का, उस अनुभव का नाम सौंदर्य है. काव्य है- देह संगीत की, सौंदर्य है- आत्मा संगीत की. तुम साधु एक संगीत, फिर ये दोनों-- देह और आत्मा अपने आप प्रकट होने शुरू होते है. ध्यान रहे--संगीत से मेरा अर्थ स्थूल संगीत से नहीं है. क्योंकि स्थूल संगीत को साधने वाले तो बहुत लोग है : न तो वह'ं काव्य है, न वह'न सौंदर्य है, न कोई परमात्मा की प्रतीत हुए है. होंगे वे वीणा बजाने में कुशल, लेकिन अंतर की वीणा नहीं'न बजी है. जगा लिए होंगे उन्होंने स्वर तारो'ं को छेड़कर , लेकिन प्राणो के तार अभी नहीं'न छिरे है'न.हो गए होंगे कुशल, ध्वनि को जन्मने में; लेकिन वह कुशलता बहार की कुशलता है.

    संगीत से मेरा प्रयोजन अन्तः'संगीत से है-- हृदय की वीणा पर जो बजता है; प्राणों की गुहा में जो गूँजता है; अंतरतम में जो जगता है.उस संगीत को ही संतो ने "अनाहत नाद कहा" है. वीणा छेरकार एक संगीत पैदा होता है, वह अनाहत'नाद नहीं'ं है, वह आहत नाद है; क्योंकि छेरना परता है, चोट करनी परती है; टैंकर से पैदा होता है-- इसलिए आहात. लेकिन संतों ने समाधी में एक ेऐसा नाद सुना, जिसका न कुछ प्रारम्भ है और न कोई अंत है. समाधी में एक ेऐसा नाद सुना, जिसको झेन फकीर कहते है-- एक हाँथ की बजाई गई ताली. बहार तो दो चाहिए ही, तभी ताली बजेगी. मगर भीतर एक अपूर्व घटना घाट'ती है. वह'न तो दो है ही नहीं'न, फाई भी नाद पैदा होता है. उसी को इस देश में हमने "ओमकार" कहा है. उसी का प्रतीक है 'ॐ'. यह 'ॐ' महत्वपूर्ण प्रतीक है.इसका कोई अर्थ नहीं है, यह सिर्फ प्रतीक है. प्रतीक है उस अन्तर'ध्वनि का, जो बज ही रही है, जो तुम्हें बजानी नहीं'ं है. तुम भीतर जाओ और सुनो. तुम थोड़ा ठहरो. तुम थोड़े शांत हो जाओ. तुम्हारे मष्तिष्क में चलता कोलाहाल थोड़ा रुके. और अचानक चकित होकर पाया जाता है कि यह स्वर तो सदा से गूंज रहा था, सिर्फ मई इतना व्यस्त था बहार, की भीतर की न सुन पाया !

    यह स्वर बारीक़ है, सूक्ष्म है. यह स्वर ही तुम्हारी आत्मा है. यह संगीत ही तुम हो जो बज रहा है. यह अनाहत है. न वह'न ज्ञाता है, न ज्ञेय है. न वह'न द्रष्टा है, न दृश्य है. वह'न सब द्वैत खो जाता है. वह'न एक ही बचता है. उसे एक भी कैसे कहे'न ? जहा'न दो न हो'न, वह'न एक का बहुत अर्थ नहीं'न होता. इसलिए ज्ञानियों'ं ने उसे एक भी नहीं कहा, कहा- अद्वैत. इतना ही कहा कि दो नहीं'ं है'न वह'न, बस; निषेध से कहा. क्योंकि विधेय से कहेंगे तो कही'न तुम भाषा की उलझन में न पड़ जाओ. अनाहत-नाद को ही मैं संगीत कह रहा हो'न. इस संगीत को सुनते ही तुम्हारा जीवन काव्य'मय हो जाता है. फिर काव्य से अर्थ नहीं'ं है की तुम कविता लिखो तो काव्य. अनहत के सुमिरण में उठना-बैठना, खाना-पीना, तुम्हारा हर कृत्य काव्य हो जाता है. बुद्ध उठते है तो काव्य है, बैठते है'न तो काव्य है. अनहत के सुमिरण में जीने वालों'ं के हर कृत्य में एक प्रसाद है, एक लालित्या है, एक अपूर्व उपस्थिति है- पारलौकिक, दैविक ! जो इस पृथ्वी की नहीं मालूम होती. जैसे मिट'टी में अमृत उतर आया हो. अनहत के सुमिरण में जीने वालों'ं का जीवन परम छंद'मय हो जाता है.

    परम सद्गुरु प्यारे ओशो