tag:blogger.com,1999:blog-37105856056296562002024-03-23T05:30:31.984-07:00Oshodhara CommunityOsho Ke Prem ki yatraadminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.comBlogger1550125tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-87813876294867665452024-03-23T05:30:00.000-07:002024-03-23T05:30:00.131-07:00इस दुनिया का गणित वहुत अद्भुत है- ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNw2VkvemwROo1HuDt567Xz91IwK3I_axDvGXXB4WJIhfRPt1f5BQ2VRm7i7QouUhqnFnyoW_nv3t8Y_P9lE0quqA43xvNtgAeq8A0NOrJFgX18b2kBF0feOOHzuBxcaA845WfYCdm451amfymqLKzJ5qCG0CKE9pBWTfaWZc1HBqNKqq6rWxuKuSZBcA/s800/Osho%20In%20Greese%20(3).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="The-mathematics-of-this-world-is-very-amazing-Osho" border="0" data-original-height="800" data-original-width="535" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNw2VkvemwROo1HuDt567Xz91IwK3I_axDvGXXB4WJIhfRPt1f5BQ2VRm7i7QouUhqnFnyoW_nv3t8Y_P9lE0quqA43xvNtgAeq8A0NOrJFgX18b2kBF0feOOHzuBxcaA845WfYCdm451amfymqLKzJ5qCG0CKE9pBWTfaWZc1HBqNKqq6rWxuKuSZBcA/w428-h640/Osho%20In%20Greese%20(3).jpg" title="The-mathematics-of-this-world-is-very-amazing-Osho" width="428" /></a></div><br /><p></p><h1 style="text-align: center;">इस दुनिया का गणित वहुत अद्भुत है- ओशो </h1><p>एक सम्राट लौटता था अपने घर-सारी दुनिया की विजययात्रा करके। उसकी सौ रानि यां थी। उसने खवर भेजी कि जिसे जो चाहिए हो वह में लेता आऊं। किसी ने कहा, कोहिनूर हीरा लेते आना और किसी ने कहा कि स्वर्ण आभूषण लेते आना और किसी ने कहा कि साड़ियां लेते आना और किसी ने कुछ, किसी ने कुछ। लेकिन सबसे छोट ी रानी ने कहा: मेरे मालिक, तुम वापिस आ रहे हो, और क्या चाहिए? वस, तुम आ जाओ सकुशल !</p><p>सम्राट सबके लिए भेटे लाया। निन्यानवे रानियों को तो भेटे दे दी और छोटी रानी को गले लगा लिया और कहा कि तूने सव को हरा दिया। तूने मुझे पा लियाः और मुझे पा लिया तो मेरी सारी मालकियत तेरी हो गयी। तू होशियार है। ये जो निन्यानवे मेरी रानियां हैं, वड़ी होशियार दिखायी पड़ती है बड़ी नासमझ सिद्ध हुई। यह दुनिया वड़ी अद्भुत है, इसका गणित वहुत अद्भुत है! यहां जो समझदार सावित होने चाहिए, समझदार सावित नहीं होते; वड़े नासमझ सिद्ध होते हैं। यहां नासमझ समझदार सिद्ध हो जाते हैं।</p><p><b>- ओशो </b></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-44185645578186483522024-03-16T07:51:00.000-07:002024-03-16T07:51:00.141-07:00सही और गलत, सब कुछ निर्भर करता है भीतर की अभीप्सा पर- ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJTIXIrOT8fnL7A4HXmHGM5NgHgy_OMNUpDqWUXYrP3U-4Nm8axIXRm4YTcN6i6gbM09oNaRdkYzJU6cpD0gS9jH6BWQGghDBsQg5y1o0xA6V89QjO7fD1vh6L2lT6MpA43S56G58VkXwu1gN0c7JrGB8lDwzRecSwgKPzIAv5qTIQ78u61Bd4OWyOn3A/s800/Osho%20In%20Greese%20(45).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Right-and-wrong-everything-depends-on-the-inner-desire-Osho." border="0" data-original-height="800" data-original-width="533" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgJTIXIrOT8fnL7A4HXmHGM5NgHgy_OMNUpDqWUXYrP3U-4Nm8axIXRm4YTcN6i6gbM09oNaRdkYzJU6cpD0gS9jH6BWQGghDBsQg5y1o0xA6V89QjO7fD1vh6L2lT6MpA43S56G58VkXwu1gN0c7JrGB8lDwzRecSwgKPzIAv5qTIQ78u61Bd4OWyOn3A/w426-h640/Osho%20In%20Greese%20(45).jpg" title="Right-and-wrong-everything-depends-on-the-inner-desire-Osho." width="426" /></a></div><br /><p></p><h1 style="text-align: center;">सही और गलत, सब कुछ निर्भर करता है भीतर की अभीप्सा पर- ओशो </h1><p>यह तो बचपन की पहली घटना मलूकदास के संबंध में ज्ञात है कि वे कूड़ा-कचरा राम् तों से साफ कर देते थे। और एक सद्गुरु ने कहा था उनके पिता को कि घवड़ाओ म त, चितित मत होओ, तुम्हारे घर ज्योति उतरी है; यह बहुतों के जीवन से कूड़ा-कच रा दूर करेगा। यह तो केवल बाहर की सूचना दे रहा है अभी। यह प्रतीकवत है। दूसरी घटना बचपन के संबंध में जो रोज-रोज घटती थी, जिससे मां-बाप परेशान हो गए थे वह थी : साधु-सत्संग। कोई आ जाए साधु, कोई आ जाए संत, फिर मलूकद ास घर की सुध-बुध भूल जाते। दिनों बीत जाते, घर न लौटते। साधु-संग में लग जा ते। घर में जो भी होता, साधुओं को दे देते। </p><p>साधुओं को तो वहुत लोगों ने दिया है, लेकिन जिस ढंग से मलूकदास ने दिया है वैसा किसी ने शायद ही दिया हो! चोरी करके देते। मां-बाप आज्ञा न दे तो घर में से ही चोरी करके, जव रात सव सोए होते. अपने ही घर की चीजें चुराकर साधुओं को दे आते। क्योंकि कोई साधु है जिसके पास कंवल नहीं है और सर्दी उतरने लगी। और कोई साधु है जिसके पास छाता नहीं है और वर्षा सिर पर खड़ी है। तो चोरी करके भी वांटते। कभी-कभी चोरी भी पुण्य हो सकती है। इसीलिए तुमसे कहता हूं : कृत्य नहीं होते पाप और पुण्य-कृत्यों के पीछे छिपे हुए अभिप्राय। कभी पुण्य भी पाप ही होते हैं और कभी पाप भी पुण्य हो जाते हैं। जीवन का गणित पहेली जैसा है। सीधी रेखा नहीं है जीवन के गणित की। कोई नहीं कह सकता कि यह ठीक और यह गलत। कि ऐसा करोगे तो ठीक और ऐसा करोगे तो गलत। </p><p>सब कुछ निर्भर करता है भीतर की अभीप्सा पर, अभिप्राय पर। अव चोरी को कौन पुण्य कहेगा? लेकिन मलूकदास की चोरी को में कैसे पाप कहूं? मलूकदास की चोरी को पाप नहीं कहा जा सकता। और तुम चोरी भी न करो तो भी क्या पुण्य हो रहा है! तुम दान भी देते हो तो पाप हो जाता है; क्योंकि तुम्हारी दान के पीछे भी व्यावसायिक वृद्धि होती है। तुम मंदिर भी वना ते हो तो पाप हो जाता है: क्योकि मंदिर के द्वार पर भी तुम अपना पत्थर लगवा दे ते हो।</p><p><b>- ओशो </b></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-64170794423198574582024-03-09T06:55:00.000-08:002024-03-09T06:55:00.149-08:00जहां हिंदू है, जहां मुसलमान है, जहां ईसाई है, वहां धर्म कहाँ है?- ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdLJBtlmmM6rbE8V6aKF9Ri1VIcFQgYROFXUfkljdk5SDUcN_DFcbMAHLvBpYosz-RYy3K25FhbvWGUeje7RSXoaq4xJX2WOXFZcyW1Tu0CBPZtdBJMhbO11udOWxJaHupV-LgqsV8mgtscT3kPAACtDFvdwf-Z6mRWizq5f9ZLMCKGdytSNNMsZtJp9Q/s627/Osho%20In%20Greese%20(31).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Where-there-is-Hindu-where-there-is-Muslim-where-there-is-Christian-where-is-religion-Osho." border="0" data-original-height="414" data-original-width="627" height="422" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhdLJBtlmmM6rbE8V6aKF9Ri1VIcFQgYROFXUfkljdk5SDUcN_DFcbMAHLvBpYosz-RYy3K25FhbvWGUeje7RSXoaq4xJX2WOXFZcyW1Tu0CBPZtdBJMhbO11udOWxJaHupV-LgqsV8mgtscT3kPAACtDFvdwf-Z6mRWizq5f9ZLMCKGdytSNNMsZtJp9Q/w640-h422/Osho%20In%20Greese%20(31).jpg" title="Where-there-is-Hindu-where-there-is-Muslim-where-there-is-Christian-where-is-religion-Osho." width="640" /></a></div><br /><p></p><h1 style="text-align: center;">जहां हिंदू है, जहां मुसलमान है, जहां ईसाई है, वहां धर्म कहाँ है?- ओशो </h1><p>मैंने तो सुना है, जव जुगलकिशोर बिड़ला मरे.. मेरे परिचित थे। मुझसे भी उन्होंने व्यावसायिक संबंध बनाना चाहा था। मुझसे भी कहा था कि अगर आप हिंदू धर्म का प्रचार करे, तो जितने धन की जरूरत हो वह में देने को तैयार हूं। मैंने कहा: अप ना धन आप अपने पास रखो। जहां हिंदू है, जहां मुसलमान है, जहां ईसाई है, वहां धर्म कहां? मैं किसी धर्म का प्रचार नहीं कर सकता हूं। मुझे वहुत हैरानी से देखा था और एक ही शब्द कहा था कि आप जैसे लोग हमेशा अटपटे क्यों होते हैं! में सब कु छ देने को, वेशतं देने को तैयार हूं, जितना धन चाहिए, लेकिन दुनिया भर में हिंदू धर्म का प्रचार होना चाहिए। दो चीजों का प्रचार-हिंदू धर्म और गऊ माता! मैंने कहा : यह मुझसे नहीं हो सकता। यह असंभव है। जव जुगलकिशोर मरे, तो स्वभा वतः उन्होंने सोचा था कि स्वर्ग पहुंचेंगे। क्योंकि इतने मंदिर बनवाए हैं, अब और क्या चाहिए! और पहुंचे भी स्वर्ग। तो स्वभावतः अकड़ से प्रवेश किया। द्वारपाल से पूछा क मुझे स्वर्ग मिला है, इसका कारण जानते हो? द्वारपाल ने कहा: कारण सभी जान ते हैं। जुगलकिशोर विड़ला ने कहा कि निश्चित ही। तो मतलव मेरे पहले मेरी सुगंध पहुंच चुकी है! मैंने इतने मंदिर जो वनवाए ! द्वारपाल ने कहा आप भ्रांति में हैं। अ 1प मंदिरों के कारण यहां प्रवेश नहीं कर रहे हैं। मंदिरों के कारण तो आपको नरक जाना पड़ता। यह तो आपने एम्बेसेडर गाड़ी बनायी, उसकी वजह से।</p><p>जुगलकिशोर भी बहुत चौके! एम्बेसेडर गाड़ी! उससे स्वर्ग जाने का क्या संबंध? तो द्व ारपाल ने कहा कि जो भी एम्बेसेडर गाड़ी में बैठे, राम-राम करता रहता है। जितने लोगों को आपने राम-राम करवाया है, उतनों को बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े पुरोहित भी नहीं करवा सके!. चीज भी अद्भुत बनायी है एम्बेसेडर गाड़ी! हर चीज वजती है सिर्प हार्न छोड़कर ! जो वैठता है, वह राम-राम करता है, जो उसको देखता है व ह राम-राम करके एकदम रास्ते से हट जाता है!</p><p>मोचा था कि मंदिर की वजह से प्रवेश मिलेगा स्वर्ग में। लेकिन वे मंदिर तो विड़ला के अहंकार के प्रतीक हो गए। और जहां अहंकार आ गया वहां पुण्य कहां?</p><p>तुम दान भी देते हो तो किसलिए? देने में तुम्हें आनंद है या कि देने के पीछे कुछ पा ने का गणित विठा रहे हो, कोई दुकान फैला रहे हो? अगर दान साधन है, तो पाप हो गया। अगर दान साध्य है, तो पुण्य है।</p><p><b>- ओशो </b></p>Unknownnoreply@blogger.com0United States37.09024 -95.7128918.780006163821156 -130.869141 65.400473836178847 -60.556641tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-61906411905132827102024-03-02T04:30:00.000-08:002024-03-02T04:30:00.132-08:00पुकार सच्ची होगी तो एक ही बार में पहुंच जाएगी - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjV53CKnl297IWGAW-pvnzktzXcG4fGbG-V2UmrQNgAiS7Xrg1Y154WSVQ25185JPOl6eKPVdelHKeMxmNnjEg_Szg8yTHEKW161VVrNbcZ6eI7T-M1CrEihxbyKbQpqnMXNpGNsE3jOXzRmUtBGCMjfHBsxNmqb6WImtFdw3EunOZdGWIthhUEUuBUoOo/s625/Osho%20In%20Poona%20(15).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="If-the-call-is-true-then-it-will-reach-you-at-once-Osho" border="0" data-original-height="410" data-original-width="625" height="420" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjV53CKnl297IWGAW-pvnzktzXcG4fGbG-V2UmrQNgAiS7Xrg1Y154WSVQ25185JPOl6eKPVdelHKeMxmNnjEg_Szg8yTHEKW161VVrNbcZ6eI7T-M1CrEihxbyKbQpqnMXNpGNsE3jOXzRmUtBGCMjfHBsxNmqb6WImtFdw3EunOZdGWIthhUEUuBUoOo/w640-h420/Osho%20In%20Poona%20(15).jpg" title="If-the-call-is-true-then-it-will-reach-you-at-once-Osho" width="640" /></a></div><br /><p><br /></p><h1 style="text-align: center;">पुकार सच्ची होगी तो एक ही बार में पहुंच जाएगी - ओशो </h1><p>बंगाल में एक बहुत बड़ा वैयाकरण हुआ। कभी मंदिर नहीं गया। उसके पिता बूढ़े होने लगे थे, नब्बे साल की उम्र हो गयी पिता की। बेटा भी अब कोई सत्तर पार कर रह [ है। आखिर पिता ने कहा कि तू कब जाएगा मंदिर, कव राम को पुकारेगा? तो बेटे ने कहा : मैं हूं व्याकरण का ज्ञाता। एक वचन में 'राम', 'राम' जिंदगी भर कहने से क्या फायदा? बहुवचन में एक ही बार राम को पुकार लेंगे। और एक ही बार पुकरूिंगा! और पुकार सच्ची होगी तो एक ही बार में पहुंच जाएगी। और पुकार अगर झू ठी है तो करोड़ बार में भी कैसे पहुंच सकती है? नाव अगर कागज की है तो करोड़ बार चलाओ, डूब-डूव जाएगी। नाव सच्ची हो तो बस एक बार छोड़ी कि उस पार पहुंची। ऐसे अंधेरे में तीर चलाने से क्या फायदा है? एक बार समग्र शक्ति लगाकर सारी आंखों को एकजुट करके, एकाग्र करके पुकार लूंगा राम को। पिता ने कहा : मैं बूढ़ा हो गया हूं, तू भी सत्तर साल का हुआ, अब इन व्यर्थ की बातों में मत लगा र ह। जब भी तुझसे कहता हूं, तभी तू यह बात कहता है-एक बार पुकार लूंगा! आखि र कब पुकारेगा? तो उसने कहा : आज ही पुकार लेता हूं।</p><p>बेटा मंदिर गया। जैसे बाप भी रोज मंदिर जाता था.. जिंदगीभर का नियम था। बाप राह देखता रहा कि बेटा लौटता होगा, लौटता होगा, लौटता होगा। नहीं लौटा। दो पहर होने लगी, सूरज ढलने लगा, तो बाप भागा मंदिर गया कि बात क्या हुई? तब तक मंदिर से भी लोग आ रहे थे, उन्होंने कहा कि तुम्हारा बेटा तो चल वसा । उसने तो बस एक बार मूर्ति के सामने खड़े होकर जोर से 'राम' को पुकार दी और वहीं गिर गया। फिर उठा नहीं।</p><p><b>- ओशो </b></p>Unknownnoreply@blogger.com0United States37.09024 -95.7128918.780006163821156 -130.869141 65.400473836178847 -60.556641tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-76657967368927000082024-02-24T04:30:00.000-08:002024-02-24T04:30:00.123-08:00मृत्यु में समाधि का फूल खिलता है- ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgWrMRrvIxaIJ7_VIyXvGBeSzc0Wg8V-tMrzUT-jkauLROgTq7YLewkm1PYhBdKDarSY0J2XxcS2a1nn9m-z6jrLzrmN4hpuJ3zXAPtNByXjLOAYRS4x707SGPothET309TRBXdkmfUdPDUtqW6Uw2xpNpK4WOkKaus_29lCNS7DFC0rlAgxFB7-Pb7gi0/s800/Osho%20In%20Poona%20(2).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="The-flower-of-samadhi-blooms-in-death-Osho" border="0" data-original-height="530" data-original-width="800" height="424" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgWrMRrvIxaIJ7_VIyXvGBeSzc0Wg8V-tMrzUT-jkauLROgTq7YLewkm1PYhBdKDarSY0J2XxcS2a1nn9m-z6jrLzrmN4hpuJ3zXAPtNByXjLOAYRS4x707SGPothET309TRBXdkmfUdPDUtqW6Uw2xpNpK4WOkKaus_29lCNS7DFC0rlAgxFB7-Pb7gi0/w640-h424/Osho%20In%20Poona%20(2).jpg" title="The-flower-of-samadhi-blooms-in-death-Osho" width="640" /></a></div><br /><p><br /></p><h1 style="text-align: center;"> मृत्यु में समाधि का फूल खिलता है- ओशो </h1><p><br /></p><p>"इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि मेरे संन्यासी को जुआरी होने की क्षमता चाहिए, साहस चाहिए। अहंकार को दांव पर लगाना कोई छोटा-मोटा खेल नहीं है। सबसे बड़ा खेल है, इससे बड़ा फिर कोई खेल भी नहीं है। क्योंकि जिस दिन, जिस क्षण तुम इ तना साहस जुटा लोगे कि कह सको कि मैं नहीं हूं, कि जान सको कि मैं नहीं हूं, कि अनुभव कर सको कि मैं नहीं हूं, कि मर जाओ स्वेच्छा से, वही संन्यास है। और उस मृत्यु में समाधि का फूल खिलता है।''</p><p>'धनुष-वाण लिए खड़ा ही है। तुम ही छिपे हो; तुम ही सामने नहीं आते। और किस ने तुम्हें छिपाया है? तुम्हारी अस्मिता ने, तुम्हारे अहंकार ने । अहंकार तुम्हारी अपनी ईजाद है, आत्मा परमात्मा की भेंट । तुम आत्मा हो, अहंकार नहीं।</p><p>इन वचनों को एक खोजी, एक सत्यार्थी की तरह लेना, विद्यार्थी की तरह नहीं। ये व चन तुम्हारे भीतर नए-नए द्वार खोल सकते हैं। ये किसी पंडित के वचन नहीं हैं, एक प्रज्ञा-पुरुष के वचन हैं। एक अलमस्त के वचन हैं, जिसने पिआ है उसकी शराव को</p><p>और जाना है उसके नशे को, जो मस्त हुआ है उसमें डूबकर । ये वचन नहीं हैं, जलते हुए अंगारे हैं। ये मात्र वचन नहीं हैं; ये तुम्हारे जीवन को रू पांतरित कर दें, ऐसी कीमिया इनमें छिपी है।''</p><p><b> - ओशो </b></p>Unknownnoreply@blogger.com0United States37.09024 -95.7128918.780006163821156 -130.869141 65.400473836178847 -60.556641tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-61993225273426279762024-02-17T04:30:00.000-08:002024-02-17T04:30:00.149-08:00मेरे संन्यास की नव धारणा - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhulbyGaZ93kHouVIej4YQwFfr5D_qPTgB2GyzsbByZF6Gyqx0LFSRTHyonrteiM8wJs7TvieU36UNmdK8Ma0jXSrx-puK3UKCG7Wr0qB-yrPI2kFjM_OcNGK00HvBxrwVytoou1cfzd1B_7bOHXDxqQOO36P_lWfS0umYD5-CgJpVv3DOffkepZfxrwRc/s673/Osho%20In%20Poona%20(32).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="My-new-concept-of-renunciation-Osho" border="0" data-original-height="673" data-original-width="448" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhulbyGaZ93kHouVIej4YQwFfr5D_qPTgB2GyzsbByZF6Gyqx0LFSRTHyonrteiM8wJs7TvieU36UNmdK8Ma0jXSrx-puK3UKCG7Wr0qB-yrPI2kFjM_OcNGK00HvBxrwVytoou1cfzd1B_7bOHXDxqQOO36P_lWfS0umYD5-CgJpVv3DOffkepZfxrwRc/w426-h640/Osho%20In%20Poona%20(32).JPG" title="My-new-concept-of-renunciation-Osho" width="426" /></a></div><br /><p></p><h1 style="text-align: center;">मेरे संन्यास की नव धारणा - ओशो </h1><p>मैं उस संन्यास के पक्ष में नहीं हूं। मेरे संन्यास की नव धारणा है। नया प्रत्यय है मेरा संन्यास । जहां हो, जैसे हो, वैसे ही रहो। वहीं जागरण आ सकता है, कहीं और जाने की जरूरत नहीं। क्योंकि जागरण तुम्हारा स्वभाव है। ज़रा अपने को हिलाना-डुलाना है। ज़रा अपने को संकल्पवान करना है। ज़रा अपना समर्पण करना है। अपने अहंकार को विसर्जित करना है। और वसंत आया। वसंत आने में देर नहीं। बस इतनी सी बात यहां घटी है। हमने वसंत को पुकारा है और वसंत आने लगा है। संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं है, भोग की परम कला है। संन्यास मेरे लिए परमात्मा को भोगने की विद्या है। परमात्मा के साथ नाचने, गाने, गुनगुनाने का आयोजन है। मैं लोगों को जीवन का विषाद नहीं सिखा रहा हूं, जीवन का आह्लाद ! पुरानी तथाकथि त संन्यास की धारणा जीवन-विरोधी थी। उसका मौलिक स्वर निषेध का था। मेरा मौ लिक स्वर विधेय का है। जिओ, जी भर कर जिओ ! एक-एक पल परिपूर्णता से जिओ ! फिर कहीं और स्वर्ग नहीं है। फिर यहीं स्वर्ग उतर आता है। जो परिपूर्णता से जीत [ है, उसकी श्वास-श्वास में स्वर्ग समा जाता है।</p><p><b> - ओशो </b></p>Unknownnoreply@blogger.com0United States37.09024 -95.7128918.780006163821156 -130.869141 65.400473836178847 -60.556641tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-18811019681529962812024-02-10T04:30:00.000-08:002024-02-10T04:30:00.262-08:00भौतिकवाद और आध्यात्मवाद विपरीत नहीं हैं - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg60o04lv3nnA-TJItUeZBsYG8Z-ZzM8GrS9a6w9sEaKnfZnP7j2s9-Zj9SS0eSPliM37kY-fO8xJf9S0waDWjHBRw7hDjRtmXp6lzBcLZqaR_aOp8KdM6gEAWxQnyJZVGDHn3KBYdS05c-TxWX-Qs3Vud7dDZ_cfXvWLr6dKo-_Xi2IbX406icXE0o5X0/s632/Osho%20In%20Poona%20(5).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Materialism-and-spirituality-are-not-opposites-Osho" border="0" data-original-height="632" data-original-width="420" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg60o04lv3nnA-TJItUeZBsYG8Z-ZzM8GrS9a6w9sEaKnfZnP7j2s9-Zj9SS0eSPliM37kY-fO8xJf9S0waDWjHBRw7hDjRtmXp6lzBcLZqaR_aOp8KdM6gEAWxQnyJZVGDHn3KBYdS05c-TxWX-Qs3Vud7dDZ_cfXvWLr6dKo-_Xi2IbX406icXE0o5X0/w426-h640/Osho%20In%20Poona%20(5).jpg" title="Materialism-and-spirituality-are-not-opposites-Osho" width="426" /></a></div><br /><p></p><p><br /></p><h1 style="text-align: center;">भौतिकवाद और आध्यात्मवाद विपरीत नहीं हैं - ओशो </h1><p>आत्मा और शरीर में कितना सहयोग है, गौर से देखो तो! तो भौतिकवाद और आध्यात्मवाद विपरीत नहीं हो सकते। भारत ने बड़ी भूल की है दोनों को विपरीत मानकर । पश्चिम भी भूल कर रहा है दोनों को विपरीत मानकर। प श्चिम ने भौतिकवाद चुन लिया, आध्यात्म के खिलाफ । भारत ने आध्यात्म चुन लिया, भौतिकवाद के खिलाफ । दोनों ने आधा-आधा चुना, दोनों तड़फ रहे हैं। दोनों मछली जैसे तड़फ रहे हैं, जिसका पानी खो गया है। क्योंकि पानी समग्रता में है। मेरा उद्घोष यही है कि हमें एक नई मनुष्यता का सृजन करना है। ऐसी मनुष्यता का , जो दोनों भूलों से मुक्त होगी। जो न भौतिकवादी होगी न आध्यात्मवादी होगी, जो समग्रवादी होगी। जो न तो देहवादी होगी, न आत्मवादी होगी, जो समग्रवादी होगी। जो बाहर को भी अंगीकार करेगी और भीतर को भी। बाहर और भीतर में जो विरो ध खड़ा न करेगी। जो बाहर और भीतर के बीच संबंध बनाएगी, सेतु बनाएगी। एक ऐसी मनुष्यता का जन्म होना चाहिए। उसी मनुष्यता के जन्म के लिए प्रयास चल रहा है।</p><p>मेरा संन्यासी उसी नए मनुष्य की पहली पहली खबर है। वह संसार को स्वीकार करत [ है। और फिर भी आध्यात्म को इनकार नहीं करता। वह आध्यात्म को स्वीकार कर ता है, फिर भी संसार को इनकार नहीं करता। वह संसार में रहकर और संसार के बाहर कैसे रहा जाए, इसका अनूठा प्रयोग कर रहा है।"</p><p>"इसलिए तुम्हें यहां प्रसन्नता दिखाई पड़ेगी, आह्लाद दिखाई पड़ेगा, वसंत दिखाई पड़े गा। फूल खिलते मालूम होंगे। ये तुम जैसे ही लोग हैं। ठीक तुम जैसे। तुम्हारे जैसे सं सार में रहते हैं, दुकान करते हैं, नौकरी करते हैं, बच्चे हैं, पत्नियां हैं, सब कुछ है। क्योंकि मैं किसी चीज से किसी को छुड़ाना नहीं चाहता। किसी को कहीं से व्यर्थ तोड़ ना नहीं चाहता। मैं खिलाफ हूं उस संन्यास के जो भगोड़ापन सिखाता है। क्योंकि उस भगोड़े संन्यास ने दुनिया को बहुत कष्ट दिए हैं। वह किसी ने हिसाव नहीं रखा कि जब करोड़ों-करोड़ों लोग संन्यासी हुए, तो उनकी पत्नियों को क्या हुआ, उनके बच्चों को क्या हुआ? बच्चों ने भीख मांगी, चोर बने; पत्नियां वेश्याएं हो गईं, कि उन्हें भी ख मांगने पर मजबूर होना पड़ा, दूसरों के वर्तन मलने पड़े ! क्या हुआ उनकी पत्नियों का, क्या हुआ उनके बच्चों का, उनका हिसाब किसी ने भी नहीं रखा। अगर उनका हिसाव रखा जाए तो तुम बहुत हैरान होओगे। तुम्हारे तथाकथित संन्यासियों ने जित ने लोगों को कष्ट दिया है, उतना किसी और ने नहीं दिया। एक-एक संन्यासी न-मालू म कितने लोगों को कष्ट दे गया! मां है बूढ़ी, पिता है बूढ़ा, वच्चे हैं छोटे, पत्नी है, और रिश्तेदार हैं-और भाग गया! एक संन्यासी कम-से-कम दस-पच्चीस लोगों को दुः ख दे जाएगा-जितने लोग उससे संबंधित हैं।</p><p><b> - ओशो </b></p>Unknownnoreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-86749011691393102472024-02-03T08:08:00.000-08:002024-02-03T08:08:55.626-08:00भौतिकवाद आध्यात्मवाद का अनिवार्य चरण है - ओशो<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhA4UjYrBazHfPcHjfKRjq_oUp2fGi8D1Y8Y0lzc4X0AmU-t7z0YzAoGyYLu-nywtG8BjPM0EDLbkq8iVhi6U1BY3FhcdyOmSosuRJ_zhglbUgE5_PDO2pqBoxA_ncDi_-LnQGv46oa-V4gnV3Zs6XWGzVc1kjTxioRkw0iwNYqEGz8ruCIWavwr1rAeRk/s799/Osho%20-%20The%20Dancing%20Buddh%20(17).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Materialism-is-an-essential-stage-of-spirituality-Osho." border="0" data-original-height="527" data-original-width="799" height="422" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhA4UjYrBazHfPcHjfKRjq_oUp2fGi8D1Y8Y0lzc4X0AmU-t7z0YzAoGyYLu-nywtG8BjPM0EDLbkq8iVhi6U1BY3FhcdyOmSosuRJ_zhglbUgE5_PDO2pqBoxA_ncDi_-LnQGv46oa-V4gnV3Zs6XWGzVc1kjTxioRkw0iwNYqEGz8ruCIWavwr1rAeRk/w640-h422/Osho%20-%20The%20Dancing%20Buddh%20(17).jpg" title="Materialism-is-an-essential-stage-of-spirituality-Osho." width="640" /></a></div><br /><p><br /></p><h1 style="text-align: center;">भौतिकवाद आध्यात्मवाद का अनिवार्य चरण है - ओशो</h1><p> "पश्चिम में जहां चीजें बहुत बढ़ गई हैं उनको तुम कहते हो भौतिकवादी लोग। सिर्प इसीलिए कि उनके पास भौतिक चीजें ज्यादा हैं। इसलिए भौतिकवादी । और तुम आ ध्यात्मवादी, क्योंकि तुम्हारे पास खाने-पीने को नहीं है, छप्पर नहीं है, नौकरी नहीं है। यह तो खूब आध्यात्म हुआ ! ऐसे आध्यात्म का क्या करोगे? ऐसे आध्यात्म को आग लगाओ।</p><p>और जिनके पास चीजें बहुत हैं, उनकी पकड़ कम हो गई है। स्वभावतः । कितना पक. डोगे? जिनके पास कुछ नहीं है, उनकी पकड़ ज्यादा होती है।</p><p>सच तो यह है कि जितनी भौतिक उन्नति होती है, उतना देश कम भौतिकवादी हो जाता है।</p><p>यह देश आध्यात्म की व्यर्थ दावेदारी करता है। इस देश को पहले भौतिकवादी होना चाहिए, तो यह आध्यात्मवादी भी हो सकेगा। इस देश के पास अभी तो शरीर को भी संभालने का उपाय नहीं है, आत्मा की उड़ान तो यह भरे तो कैसे भरे ! वीणा ही पा स नहीं है, तो संगीत तो कैसे पैदा हो ! पेट भूखे हैं, उनमें प्रेम के बीज कैसे फलें! पेट भूखे हैं, उनमें ध्यान कैसे उगाया जाए?</p><p>मेरे हिसाव में हमने कोई अगर बड़ी-से-बड़ी भूल की है इन पांच हजार वषा में तो व ह यह कि हमने भौतिकवाद की निंदा की है। और भौतिकवाद की निंदा पर आध्यात्म वाद को खड़ा करना चाहा है। उसका यह दुष्परिणाम है जो हम भोग रहे हैं। इसमें तु म्हारे साधु-संतों का हाथ है। और जब तक तुम यह न समझोगे कि तुम्हारे साधु-संतों की जुम्मेवारी है तुम्हें भिखमंगा रखने में, गरीब रखने में, दीन-बीमार रखने में, तब तक तुम इस नरक के पार नहीं हो सकोगे। क्योंकि तुम मूल कारण को ही न पहचा नोगे तो उसकी जड़ कैसे कटेगी?</p><p>मेरे हिसाव में, भौतिकवाद आध्यात्मवाद का अनिवार्य चरण है। भौतिकवाद बुनियाद है मंदिर की और आध्यात्म मंदिर का शिखर है। बुनियाद के बिना शिखर नहीं हो स कता । भौतिकवाद और आध्यात्म में कोई विरोध नहीं है। सहयोग है।</p><p><b> - ओशो</b></p>Unknownnoreply@blogger.com0United States37.09024 -95.7128918.780006163821156 -130.869141 65.400473836178847 -60.556641tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-39486727003504336492023-12-02T06:53:00.000-08:002023-12-02T06:53:00.239-08:00कोई आदमी विश्वास करने से धार्मिक नहीं हो सकता - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqE0zQYs9MJVIjfOiONb5VlKTvroaPxaW3gHXXYPs8DcwyiCjcOYRZFKrSstXHzO5_d0nszvpuUmLmqfalD_xAOiNzp5Hpw8TlUoR4BKCaF104Y23i8D8R_PuvKZDBhB9yijGjMLhuRBgbRzvgcIgNz0Fo8HdIzXNfo-FaxjFMgJEAYkTqeMFIn9LdoQ/s652/Osho%20In%20Greese%20(37).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="One cannot become religious by believing - Osho" border="0" data-original-height="440" data-original-width="652" height="432" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgqE0zQYs9MJVIjfOiONb5VlKTvroaPxaW3gHXXYPs8DcwyiCjcOYRZFKrSstXHzO5_d0nszvpuUmLmqfalD_xAOiNzp5Hpw8TlUoR4BKCaF104Y23i8D8R_PuvKZDBhB9yijGjMLhuRBgbRzvgcIgNz0Fo8HdIzXNfo-FaxjFMgJEAYkTqeMFIn9LdoQ/w640-h432/Osho%20In%20Greese%20(37).JPG" title="One cannot become religious by believing - Osho" width="640" /></a></div><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;">कोई आदमी विश्वास करने से धार्मिक नहीं हो सकता - ओशो </h1><p>तीसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं: अब तक, आज तक की हमारी सारी विचारणा इस बात को मान कर चलती रही है कि धर्म एक विश्वास है, बिलीफ है, फेथ है। विश्वास कर लेना है और धार्मिक हो जाना है। यह बात बिलकुल ही गलत है। कोई आदमी विश्वास करने से धार्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि विश्वास सदा झूठा है। विश्वास का मतलब है, जो मैं नहीं जानता, उसको मान लेना। झूठ का और क्या अर्थ हो सकता है? जो मैं नहीं जानता, उसको मान लूं? धार्मिक आदमी जो नहीं जानता, उसे मानने को राजी नहीं होगा। वह कहेगा कि मैं खोज करूंगा, मैं समझूगा, मैं विचार करूंगा, मैं प्रयोग करूंगा, मैं अनुभव करूंगा। जिस दिन मुझे पता चलेगा, मैं मान लूंगा। लेकिन जब तक मैं नहीं जानता हूं, मैं कैसे मान सकता हूं! लेकिन हम जिन बातों को बिलकुल नहीं जानते हैं, उनको मान कर बैठ गए हैं। और इनको मान कर बैठ जाने के कारण हमारी इंक्वायरी, हमारी खोज, हमारी जिज्ञासा बंद हो गई है। </p><p><span> </span><span> </span>विश्वास ने भारत के धर्म के प्राण ले लिए हैं। जिज्ञासा चाहिए, विश्वास नहीं। विश्वास खतरनाक है, पायजनस है, क्योंकि विश्वास जिज्ञासा की हत्या कर देता है। और हम छोटे-छोटे बच्चों को धर्म का विश्वास देने की कोशिश करते हैं। सिखाने की कोशिश करते हैं: ईश्वर है, आत्मा है, परलोक है, मृत्यु है; यह है, वह है! पुनर्जन्म है, कर्म है--यह हम सब सिखाने की कोशिश करते हैं। हम जबरदस्ती उस बच्चे को सिखा देते हैं, जिस बच्चे को इन बातों का कोई भी पता नहीं है। उसके भीतर प्राणों के प्राण कह रहे होंगे, मुझे तो कुछ पता नहीं है! लेकिन अगर वह कहे कि मुझे पता नहीं, तो हम कहेंगे कि तू नास्तिक है। जिनको पता है, वे कहते हैं कि ये चीजें हैं, इनको मान! हम उसके संदेह को दबा रहे हैं और ऊपर से विश्वास थोप रहे हैं। उसका संदेह भीतर सरक जाएगा प्राणों में और विश्वास ऊपर बैठ जाएगा।</p><p><span> </span><span> </span>जो प्राणों में सरक गया, वही सत्य है। जो ऊपर कपड़ों की तरह टंगा हुआ है वह सत्य नहीं है। इसलिए आदमी धार्मिक दिखाई पड़ता है, धार्मिक नहीं है। धर्म केवल वस्त्र है। उसकी आत्मा में संदेह मौजूद है। उसकी आत्मा में शक मौजूद है कि ये बातें हैं? आदमी मंदिर में हाथ जोड़ कर सामने खड़ा हआ है। ऊपर से हाथ जोड़े हुए है, कह रहा है कि हे भगवान! और भीतर संदेह मौजूद है कि मैं एक पत्थर की मूर्ति के सामने खड़ा हूं। इसमें भगवान है? वह संदेह हमेशा मौजूद रहेगा। वह संदेह तभी मिटेगा, जब हमारा अनुभव होगा कि भगवान है। उसके पहले वह संदेह नहीं मिट सकता। और उसको जितनी छिपाने की कोशिश करिएगा, वह उतना ही गहरे भीतर उतर जाएगा। और जितने गहरे उतर जाएगा उतना ही आदमी गलत रास्ते पर पहुंच गया, क्योंकि आदमी दो हिस्सों में विभाजित हो गया। उसकी आत्मा में संदेह है और बुद्धि में विश्वास है। तो बौद्धिक रूप से हम सब धार्मिक हैं, आत्मिक रूप से हम कोई भी धार्मिक नहीं हैं।</p><div><b>- ओशो </b></div>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-26655078503859922612023-11-25T06:15:00.000-08:002023-11-25T06:15:00.123-08:00हिचकी - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpIT0ZhBXDX1o8FcuIFFcI4m9zxoqT1KhE-Nv2EfW5z6fZ_eE59tzsg0hl-Y4eOK2tApvnlVfei6OFgfub5yDjNJ1aVb6LPWRZkCthR9WvklseCVBRbb3CwDVQ9HJF78VTxCSLDMcqSXohy_q3NXTPUha-0Yb_hxgQ9P0dIhJaNvqRGRWFtxwHlbMKgA/s800/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(32).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Hiccup - Osho" border="0" data-original-height="536" data-original-width="800" height="428" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhpIT0ZhBXDX1o8FcuIFFcI4m9zxoqT1KhE-Nv2EfW5z6fZ_eE59tzsg0hl-Y4eOK2tApvnlVfei6OFgfub5yDjNJ1aVb6LPWRZkCthR9WvklseCVBRbb3CwDVQ9HJF78VTxCSLDMcqSXohy_q3NXTPUha-0Yb_hxgQ9P0dIhJaNvqRGRWFtxwHlbMKgA/w640-h428/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(32).jpg" title="Hiccup - Osho" width="640" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;">हिचकी - ओशो </h1><p><span> </span><span> </span>मैंने सुना है, एक डाक्टर के दफ्तर में--हो सकता है अजित सरस्वती हों; अब छिपाना क्या, अब बता ही देना ठीक है--एक महिला भीतर गई। कुंआरी युवती है और अजित सरस्वती ने उससे कह दिया कि तू कुंआरी नहीं है, तुझे गर्भ हुआ। वह एकदम भड़क गई कि क्या बातें करते हो! भनभना गई, लाल हो गई, कि मैं बिलकुल कुंआरी हूं। मुझे कैसे गर्भाधारण हो सकता है? अरे किसी पुरुष का स्पर्श भी नहीं किया, तो गर्भाधारण कैसे हो सकता है? वह भनभना कर दरवाजा जोर से भड़का कर बाहर निकल आई--चिल्लाती हुई, चीखती हुई, नाराज होती हुई। अजित सरस्वती के असिस्टेंट ने पूछा कि आपने यह कैसी बात कही! अजित सरस्वती ने कहा, तुमने देखा नहीं, मैंने उसका इलाज कर दिया! उसको हिचकी आने की बीमारी थी। जैसे ही अजित सरस्वती ने कहा कि तुझे गर्भ रह गया, हिचकी बंद हो गईं। अरे हिचकी ऐसे समय में चल सकती है! कुंआरी कन्या को तुम कह दो गर्भ रह गया, इलाज हो गया। हिचकी उसी क्षण बंद हो गई।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-25008039815130715032023-11-18T06:53:00.000-08:002023-11-18T06:53:00.237-08:00अगर भारत को धार्मिक बनाना है, तो एक स्वस्थ शरीर की विचारणा धर्म के साथ संयुक्त करनी जरूरी है - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivuru7170oK3d4F_qvLBzEgeqosqDUBEjqAKMYyLnZ0nZZLq5v9Ktxq8Cgjr-SEsNzHv2_W79FQ5egZEEKmDv8C6AjsqSegcGf5QJxz__w9AMcnP8ZeqX2pnccxNDgJOsNXX5qPenbHsl7k3Uq3Of4b_31jEWe1kgvEkC4qcJah6lXPkK6uxmOpqt4dQ/s674/Osho%20In%20Greese%20(41).JPG" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="If India is to be made religious, then the idea of a healthy body must be combined with religion - Osho" border="0" data-original-height="448" data-original-width="674" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEivuru7170oK3d4F_qvLBzEgeqosqDUBEjqAKMYyLnZ0nZZLq5v9Ktxq8Cgjr-SEsNzHv2_W79FQ5egZEEKmDv8C6AjsqSegcGf5QJxz__w9AMcnP8ZeqX2pnccxNDgJOsNXX5qPenbHsl7k3Uq3Of4b_31jEWe1kgvEkC4qcJah6lXPkK6uxmOpqt4dQ/w640-h426/Osho%20In%20Greese%20(41).JPG" title="If India is to be made religious, then the idea of a healthy body must be combined with religion - Osho" width="640" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;"> अगर भारत को धार्मिक बनाना है, तो एक स्वस्थ शरीर की विचारणा धर्म के साथ संयुक्त करनी जरूरी है - ओशो </h1><p>लेकिन हमने हजारों साल में एक धारा विकसित की--शरीर की शत्रुता की। और शरीर के शत्रु हमें आध्यात्मिक मालूम होने लगे। तो जो आदमी अपने शरीर को कष्ट देने में जितना अग्रणी हो सकता था--कांटों पर लेट जाए कोई आदमी, तो वह महात्यागी मालूम होने लगा। शरीर को कोड़े मारे कोई आदमी और लहूलुहान हो जाए...। यूरोप में कोड़े मारने वालों का एक संप्रदाय था। उस संप्रदाय के साधु सुबह से उठ कर कोड़े मारने शुरू कर देते। और जैसे हिंदुस्तान में उपवास करने वाले साधु हैं, जिनकी फेहरिस्त छपती है कि फलां साधु ने चालीस दिन का उपवास किया, फलां साधु ने सौ दिन का उपवास किया, वैसे ही यूरोप में वे जो कोड़े मारने वाले साधु थे, उनकी भी फेहरिस्त छपती थी कि फलां साधु सुबह एक सौ एक कोड़े मारता है, फलां साधु दो सौ एक कोड़े मारता है। जो जितने ज्यादा कोड़े मारता था, वह उतना बड़ा साधु था! </p><p><span> </span><span> </span>आंखें फोड़ लेने वाले लोग हुए, कान फोड़ लेने वाले लोग हुए, जननेंद्रिय काट लेने वाले लोग हुए, शरीर को सब तरह से नष्ट करने वाले लोग हुए! यूरोप में एक वर्ग था जो अपने पैर में जूता पहनता था, तो जूतों में नीचे खीले लगा लेता था, ताकि पैर में खीले चुभते रहें। वे महात्यागी समझे जाते थे, लोग उनके चरण छूते थे, क्योंकि महात्यागी हैं। आपका संन्यासी उतना त्यागी नहीं है, बिना जूते के ही चलता है सड़क पर। वह जूता भी पहनता था, नीचे खीले भी लगाता था। तो पैर में घाव हमेशा हरे होने चाहिए! खून गिरता रहना। चाहिए! कमर में पट्टे बांधता था, पट्टों में खीले छिदे रहते थे, जो कमर में अंदर छिदे रहें और घाव हमेशा बने रहें। लोग उनके पट्टे खोल-खोल कर देखते थे कि कितने घाव हैं और कहते थे कि बड़े महान व्यक्ति हैं आप।</p><p><span> </span><span> </span>सारी दुनिया में शरीर के दुश्मनों ने धर्म के ऊपर कब्जा कर लिया है। ये आत्मवादी नहीं हैं, क्योंकि आत्मवादी को शरीर से कोई शत्रुता नहीं है। आत्मवादी के लिए शरीर एक वीहिकल है, शरीर एक सीढ़ी है, शरीर एक माध्यम है। उसे तोड़ने का कोई अर्थ नहीं। एक आदमी बैलगाड़ी पर बैठ कर जा रहा है। बैलगाड़ी को चोट पहुंचाने से क्या मतलब है? हम शरीर पर यात्रा कर रहे हैं, शरीर एक बैलगाड़ी है। उसे नष्ट करने से क्या प्रयोजन है? वह जितना स्वस्थ होगा, जितना शांत होगा, उतना ही उसे भूला जा सकता है। </p><p><span> </span><span> </span>तो दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं: भारत के धर्म ने चूंकि शरीर को इनकार किया, इसलिए अधिकतम लोग अधार्मिक रह गए। वे शरीर को इतना इनकार नहीं कर सके। तो उन्होंने एक काम किया कि जो शरीर को इनकार करते थे, उनकी पूजा की, लेकिन खुद अधार्मिक होने को राजी रह गए, क्योंकि शरीर को बिना चोट पहुंचाए धार्मिक होने का कोई उपाय न था। अगर भारत को धार्मिक बनाना है, तो एक स्वस्थ शरीर की विचारणा धर्म के साथ संयुक्त करनी जरूरी है और यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि जो लोग शरीर को चोट पहुंचाते हैं, ये न्यूरोटिक हैं, ये विक्षिप्त हैं, ये मानसिक रूप से बीमार हैं। ये आदमी स्वस्थ नहीं हैं, स्वस्थ भी नहीं हैं आध्यात्मिक तो बिलकुल नहीं हैं। इन आदमियों की मानसिक चिकित्सा की जरूरत है। लेकिन ये हमारे लिए आध्यात्मिक थे। तो यह अध्यात्म की गलत धारणा हमें धार्मिक नहीं होने दी।</p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-67337478398109161262023-11-11T06:14:00.000-08:002023-11-11T06:14:00.133-08:00पंडितों के पास धर्म नहीं होता, सिर्फ धर्म की बकवास होती है - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgRm2iG-nmjV1bz1eGz8y3xBtT8-Pu-theuwfzxosWjuFUbfPivVzjmhM_7mXklu11iOWm1SLvDvbh2V9rjbjmMOFIt5mPbvukhD-VZyA1tlBiG5Uf21_gnrVQlTJN_nJ4u-Yc1ZbFrXxlKqbhmKf-9pES32n4odfWXPiUWwagSGFV4-TZWEBz9AfYyqg/s656/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(33).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Pundits don't have religion, only religion is rubbish - Osho" border="0" data-original-height="656" data-original-width="438" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgRm2iG-nmjV1bz1eGz8y3xBtT8-Pu-theuwfzxosWjuFUbfPivVzjmhM_7mXklu11iOWm1SLvDvbh2V9rjbjmMOFIt5mPbvukhD-VZyA1tlBiG5Uf21_gnrVQlTJN_nJ4u-Yc1ZbFrXxlKqbhmKf-9pES32n4odfWXPiUWwagSGFV4-TZWEBz9AfYyqg/w428-h640/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(33).jpg" title="Pundits don't have religion, only religion is rubbish - Osho" width="428" /></a></div><div><br /></div><h1 style="text-align: center;">पंडितों के पास धर्म नहीं होता, सिर्फ धर्म की बकवास होती है - ओशो </h1><p></p><p><span> </span><span> </span>विनम्रता तो अहंकार पर लीपापोती है। विनम्रता तो अहंकार को सजावट देना है। अहंकार की बदबू को छिपाने के लिए थोड़ी सुगंध छिड़कना है। उसके आसपास धूप-दीप जलाना है। वह अहंकार की बचावट है। और शांति भी। और तुम्हारे तथाकथित सारे सदगुण सिर्फ धोखे हैं, प्रवंचनाएं हैं। ऐसे प्रवंचकों के पास जाकर क्या होगा? सूत्र कहता है: 'धर्मात्मा, विद्वान...।' जो विद्वान है वह धर्मात्मा नहीं हो सकता। धर्म का पंडित हो सकता है। विद्वता उसकी है, इसलिए गीता-ज्ञानमर्मज्ञ हो सकता है। जैसे मोरारजी देसाई गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ हो गए हैं जब से वे भूत-प्रेत हुए हैं। अब और तो कुछ बचा नहीं। अब करें भी क्या? आखिर में यही रह जाता है। तो अब गीता-ज्ञान-मर्मज्ञ हो गए! पंडितों के पास धर्म नहीं होता, सिर्फ धर्म की बकवास होती है। हां, बकवास व्यवस्थित होगी, तर्कबद्ध होगी।</p><p><span> </span><span> </span>और धर्म का तर्क से कोई संबंध नहीं है, व्यवस्था से भी कोई संबंध नहीं है। धर्म तो क्रांति है, बगावत है, विद्रोह है। सूत्र कहता है: । ऐसे व्यक्तियों की सेवा में उपस्थित होकर अपना समाधान करिए।' अभी जिनका समाधान खुद | वे खाक तुम्हारा समाधान करेंगे! भूल कर ऐसे आदमियों के पास मत जाना। बचना, कहीं समाधान कर ही न दें! कहीं चलते-चलते कुछ पकड़ा न दें! पहले जो पकड़ा गए हैं उनसे ही तो जान मुसीबत में पड़ी है। अब ये और न पकड़ा दें कुछ। विद्वान से बचना। पंडित से बचना। उसकी छाया से बचना। यही असली शूद्र है। देखते ही एकदम भाग खड़े होना। 'उससे समाधान प्राप्त करिए। जिसको समाधान खुद नहीं हुआ है! 'और उसके आचरण और उपदेश का अनुसरण कीजिए।' यही तुम्हारी बीमारी है। यह तो बहुत मजेदार तैतरीय उपनिषद का सूत्र हुआ। यह तो छोटी बीमारी को मिटाने के लिए और बड़ी बीमारी दे दी। अक्सर ऐसा हो जाता है कि छोटी बीमारी को भुलाने के लिए बड़ी बीमारी पकड़ा देना उपयोगी होता है।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-88828103362724967142023-11-04T07:51:00.000-07:002023-11-04T07:51:00.134-07:00शरीर और आत्मा का एक सम्मिलित संगीत है - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiL6hHSziVrPkhOsUDKwVzM122AM4l-ODo26SZMF6dfmOfokvtZa1cjsVn_X_mpXKuBQcxaL0XGD653SDz6T-LUDxdSsdYbQjF3xca5qk5bc3a3ZWhtUc28mXL9YjKgL06ONt-ZX-Cq9N4x7rMGVafY71b1kAtar0Lsx8-svJy3Dhgy7VGkPVdc10taOg/s800/Osho%20In%20Greese%20(43).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="There is music of body and soul - Osho" border="0" data-original-height="535" data-original-width="800" height="428" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiL6hHSziVrPkhOsUDKwVzM122AM4l-ODo26SZMF6dfmOfokvtZa1cjsVn_X_mpXKuBQcxaL0XGD653SDz6T-LUDxdSsdYbQjF3xca5qk5bc3a3ZWhtUc28mXL9YjKgL06ONt-ZX-Cq9N4x7rMGVafY71b1kAtar0Lsx8-svJy3Dhgy7VGkPVdc10taOg/w640-h428/Osho%20In%20Greese%20(43).jpg" title="There is music of body and soul - Osho" width="640" /></a></div><br /><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><h1 style="text-align: center;">शरीर और आत्मा का एक सम्मिलित संगीत है - ओशो </h1><p>सारी दुनिया में ऐसे लोग थे, जो मानते थे कि मनुष्य केवल शरीर है, शरीर के अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं है। धर्म ने ठीक दूसरी अति, दूसरी एक्सट्रीम पकड़ ली और कहा कि आदमी सिर्फ आत्मा है। शरीर तो माया है, शरीर तो झूठ ये दोनों ही बातें झूठ हैं। न तो आदमी केवल शरीर है और न आदमी केवल आत्मा है। ये दोनों बातें समान रूप से झूठ हैं। एक झूठ के विरोध में दूसरा झूठ खड़ा कर लिया। </p><p><span> </span><span> </span>पश्चिम एक झूठ बोलता रहा है कि आदमी सिर्फ शरीर है और भारत एक झूठ बोल रहा है कि आदमी सिर्फ आत्मा है। ये दोनों सरासर झूठ हैं। पश्चिम अपने झूठ के कारण अधार्मिक हो गया, क्योंकि सिर्फ शरीर को मानने वाले लोग, उनके लिए धर्म का कोई सवाल न रहा। भारत अपने झूठ के कारण अधार्मिक हो गया, क्योंकि सिर्फ आत्मा को मानने वाले लोग शरीर का जो जीवन है, उसकी तरफ आंख बंद कर लिए। जो माया है, उसका विचार भी क्या करना? जो है ही नहीं, उसके संबंध में सोचना भी क्या? </p><p><span> </span><span> </span>जब कि आदमी की जिंदगी शरीर और आत्मा का जोड़ है। वह शरीर और आत्मा का एक सम्मिलित संगीत है। अगर हम आदमी को धार्मिक बनाना चाहते हैं, तो उसके शरीर को भी स्वीकार करना होगा, उसकी आत्मा को भी। निश्चित ही, उसके शरीर को बिना स्वीकार किए हम उसकी आत्मा की खोज में भी एक इंच आगे नहीं बढ़ सकते हैं। शरीर तो मिल भी जाए बिना आत्मा का कहीं, लेकिन आत्मा बिना शरीर की नहीं मिलती। शरीर आधार है, उस आधार पर ही आत्मा अभिव्यक्त होती है। वह मीडियम है, वह माध्यम है। इस माध्यम को इनकार जिन लोगों ने कर दिया, उन लोगों ने इस माध्यम को बदलने का, इस माध्यम को सुंदर बनाने का, इस माध्यम को ज्यादा सत्य के निकट ले जाने का सारा उपाय छोड़ दिया। शरीर का एक विरोध पैदा हुआ, एक दुश्मनी पैदा हुई। हम शरीर के शत्रु हो गए, और शरीर को जितना सताने में हम सफल हो सके, हम समझने लगे कि उतने हम धार्मिक हैं!</p><p><span> </span><span> </span>हमारी सारी तपश्चर्या शरीर को सताने की अनेक-अनेक योजनाओं के अतिरिक्त और क्या है? जिसे हम तप कहते हैं, जिसे हम त्याग कहते हैं, वह शरीर की शत्रुता के अतिरिक्त और क्या है? धीरे-धीरे यह खयाल पैदा हो गया है कि जो आदमी शरीर को जितना तोड़ता है, जितना नष्ट करता है, जितना दमन करता है, उतना ही आध्यात्मिक है। शरीर को तोड़ने और नष्ट करने वाला आदमी विक्षिप्त हो सकता है, आध्यात्मिक नहीं। क्योंकि आत्मा का भी जो अनुभव है उसके लिए एक स्वस्थ, शांत और सुखी शरीर की आवश्यकता है। उस आत्मा के अनुभव के लिए भी एक ऐसे शरीर की आवश्यकता है, जिसे भूला जा सके।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-91308447786486668292023-10-28T07:13:00.000-07:002023-10-28T07:13:00.139-07:00विनम्रता के पीछे अहंकार छिपा रहता है - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIoe1plQwuXDcZQcOgZky0qc8yDIXiu0OmQXiXGlkp-aSnAeqGIoyWgOUTKM7aLBdXvlvwgwCPdQh4CSg82gBxw2vJnNH8W1kitCXoVGRGlOFdEprhbP259LH-pDSlucxwddTWBYM9GDExJUCLgfeG1L4p-C60RnNSrm5ng9oRWrNs0GoGxi3J9rpTgA/s640/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(35).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Ego hides behind humility - Osho" border="0" data-original-height="428" data-original-width="640" height="428" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgIoe1plQwuXDcZQcOgZky0qc8yDIXiu0OmQXiXGlkp-aSnAeqGIoyWgOUTKM7aLBdXvlvwgwCPdQh4CSg82gBxw2vJnNH8W1kitCXoVGRGlOFdEprhbP259LH-pDSlucxwddTWBYM9GDExJUCLgfeG1L4p-C60RnNSrm5ng9oRWrNs0GoGxi3J9rpTgA/w640-h428/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(35).jpg" title="Ego hides behind humility - Osho" width="640" /></a></div><div><br /></div><h1 style="text-align: center;">विनम्रता के पीछे अहंकार छिपा रहता है - ओशो </h1><p></p><p>मैंने सुना है कि लखनऊ में एक स्त्री गर्भवती हुई और गर्भवती बनी ही रही। नौ महीने आए, गुजर गए; नौ सालें आई और गजर गई। और स्त्री की मसीबत समझो। मगर लखनवी ढंग ही और, हिसाब ही और। यह तो बाद में राज खुला--नब्बे साल के बाद। क्या गुजरी होगी उस स्त्री पर! नब्बे साल बाद, मजबूरी में उसका पेट फाड़ा गया। तो दो बुजुर्ग निकले; बुजुर्ग तो हो ही चुके थे। थे छोटे-छोटे, मगर थे बुजुर्ग। बाल सफेद, दाढ़ी सफेद, बस एक पैर कब्र में ही था। और जो दृश्य था वह देखने योग्य था। पेट तो फाड़ दिया गया, तब सब राज खुला। </p><p><span> </span><span> </span>वे दोनों एक-दूसरे से कहें: 'पहले आप!' तब राज खुला कि क्यों नौ महीने में नहीं निकले। वह 'पहले आप! कि नहीं हुजूर पहले आप!' वह विनम्रता मार गई। पेट फटा पड़ा है, मगर वह लखनवी विनम्रता, वे कहें कि 'नहीं, पहले आप।' अरे, डाक्टर ने कहा, निकलो भी! जबरदस्ती निकालना पड़े, तब निकले वे। बामुश्किल निकले, बड़े बेमन से निकले, क्योंकि लखनवी रिवाज टूटा जा रहा है। मैं कोई विनम्र नहीं, इस बात में मैं राजी हूं। मैं कोई अहंकारी भी नहीं। क्योंकि विनम्रता और अहंकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं शांत नहीं, मैं अशांत नहीं। क्योंकि वे दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। और जब । सिक्का गिरता है तो पूरा गिरता है। अगर तुमने आधा बचाया तो दूसरा आधा हिस्सा ज्यादा से ज्यादा छिपेगा, जा नहीं सकता। इसलिए विनम्रता के पीछे अहंकार छिपा रहता है। शांति के पीछे अशांति छिपी रहती है।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-10134043448342032572023-10-21T07:48:00.000-07:002023-10-21T07:48:00.140-07:00परलोक के अति चिंतन ने भारत को अधार्मिक बना दिया - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK3xxSDL9FuRxwufA4z0iJZ7c_q_-h83xJ9L2Msk8i3N4J2BcMk3zudJbv6_XzuMNuxT0XFggMtGIgFASWCbk1JSTmkRjnapgg7ArRoc7sY0owDMxg03SLY9LGln49qpA1H-8AFF70TEV4KH-iojfrPgpTju2ZvEdKgt5u7KQpXVkT-pnWAkSULdc2yg/s800/Osho%20In%20Greese%20(44).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Overthinking of the hereafter made India irreligious - Osho" border="0" data-original-height="800" data-original-width="529" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgK3xxSDL9FuRxwufA4z0iJZ7c_q_-h83xJ9L2Msk8i3N4J2BcMk3zudJbv6_XzuMNuxT0XFggMtGIgFASWCbk1JSTmkRjnapgg7ArRoc7sY0owDMxg03SLY9LGln49qpA1H-8AFF70TEV4KH-iojfrPgpTju2ZvEdKgt5u7KQpXVkT-pnWAkSULdc2yg/w424-h640/Osho%20In%20Greese%20(44).jpg" title="Overthinking of the hereafter made India irreligious - Osho" width="424" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;"> परलोक के अति चिंतन ने भारत को अधार्मिक बना दिया - ओशो </h1><p>पहली बात है: परलोक के संबंध में अति चिंतन ने भारत को अधार्मिक होने में सहायता दी, धार्मिक होने में जरा भी नहीं। सोचा शायद हमने यही था कि परलोक का यह भय लोगों को धार्मिक बना देगा। सोचा शायद हमने यही था कि परलोक की चिंता लोगों को अधार्मिक नहीं होने देगी। लेकिन हुआ उलटा, हुआ यह कि परलोक इतना दूर मालूम पड़ा कि वह हमारा कोई कंसर्न ही नहीं है, हमारा उससे कोई संबंध, नाता नहीं है। हमारा नाता है इस जीवन से। और इस जीवन को कैसे जीया जाए, इस जीवन की कला क्या है, वह सिखाने वाला हमें कोई भी न था। धर्म हमें सिखाता था, जीवन कैसे छोड़ा जाए। जीवन कैसे जीया जाए, यह बताने वाला धर्म न था। धर्म बताता था, जीवन कैसे छोड़ा जाए, जीवन कैसे त्यागा जाए, जीवन से कैसे भागा जाए--इसके सारे नियम-- शुरू से लेकर आखिर तक हमने सारे नियम इसके खोज लिए कि जीवन को छोड़ने की पद्धति क्या है। </p><p><span> </span><span> </span>लेकिन जीवन को जीने की पद्धति क्या है, उसके संबंध में धर्म मौन है। परिणाम स्वाभाविक था। जीवन को छोड़ने वाली कौम कैसे धार्मिक हो सकती है? जीना तो है जीवन को। कितने लोग भागेंगे? और जो भाग कर भी जाएंगे, वे जाते कहां हैं? संन्यासी भाग कर, साधु भाग कर जाता कहां है? भागता कहां है, सिर्फ धोखा पैदा होता है भागने का। सिर्फ श्रम से भाग जाता है, समाज से भाग जाता है, लेकिन समाज के ऊपर पूरे समय निर्भर रहता है। समाज से रोटी पाता है, इज्जत पाता है। समाज से कपड़े पाता है, समाज के बीच जीता है, समाज पर निर्भर होता है। सिर्फ एक फर्क हो जाता है। वह फर्क यह है कि वह विशुद्ध रूप से शोषक हो जाता है; श्रमिक नहीं रह जाता। वह कोई श्रम नहीं करता, सिर्फ शोषण करता है।</p><p><span> </span><span> </span>कितने लोग संन्यासी हो सकते हैं? अगर पूरा समाज भागने वाला समाज हो जाए, तो पचास वर्ष में उस देश में एक भी जीवित प्राणी नहीं बचेगा। पचास वर्षों में सारे लोग समाप्त हो जाएंगे। लेकिन पचास वर्ष भी लंबा समय है। अगर सारे लोग संन्यासी हो जाएं, तो पंद्रह दिन भी बचना बहुत मुश्किल है। क्योंकि किसका शोषण करिएगा? किसके आधार पर जीइएगा? भागने वाला धर्म, एस्केपिस्ट रिलीजन कभी भी जिंदगी को बदलने वाला धर्म नहीं हो सकता। थोड़े-से लोग भागेंगे। और जो भाग जाएंगे, वे उन पर निर्भर रहेंगे, जो भागे नहीं हैं। </p><p><span> </span><span> </span>अब यह बड़े चमत्कार की बात है कि संन्यासी गृहस्थ पर निर्भर है और गृहस्थ को नीचा समझता है अपने से। जिस पर निर्भर है, उसको नीचा समझता है, उसको चौबीस घंटे गालियां देता है। उसके पाप का बखान करता है। उसके नर्क जाने की योजना बनाता है। और निर्भर उस पर है! और अगर ये गृहस्थ सब नर्क जाएंगे, तो इनकी रोटी खाने वाले, इनके कपड़े पहनने वाले संन्यासी इनके पीछे नर्क नहीं जाएंगे, तो और कहां जा सकते हैं? कहीं जाने का कोई उपाय नहीं हो सकता। लेकिन भागने की एक दृष्टि जब हमने स्पष्ट कर ली कि जो भागता है, वह धार्मिक है; तो जो जीता है, वह तो अधार्मिक है; उसको धार्मिक ढंग से जीने का सोचने का कोई सवाल न रहा। वह तो अधार्मिक है, क्योंकि जीता है। भागता जो है, वह धार्मिक है! तो जीने वाले को धार्मिक होने का कोई विधान, कोई विधि, कोई टेक्नीक, कोई शिल्प हम नहीं खोज पाए।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-26699758877796821202023-10-14T07:13:00.000-07:002023-10-14T07:13:00.132-07:00ब्राह्मण महाभिमानी रहा है - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZs4hg5Twu8LQ2quGhZBEFeyKgH_Ikmj08-hUCiXgrvRIJqXOq8VCVEV-QMzBSH7m6jvtBjJlndQEz7BFT6q3tn4T49uHN9Y1wWSSNgkXQQs9T1pUjPrR67E-RU3-WjLmiC9ExZxHNRIO5MnyOOR7LLuZPsr17uFK2aZGrh3T-o3Lkj4bcYsoj2MUwrg/s800/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(37).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Brahmin has been proud - Osho" border="0" data-original-height="800" data-original-width="325" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjZs4hg5Twu8LQ2quGhZBEFeyKgH_Ikmj08-hUCiXgrvRIJqXOq8VCVEV-QMzBSH7m6jvtBjJlndQEz7BFT6q3tn4T49uHN9Y1wWSSNgkXQQs9T1pUjPrR67E-RU3-WjLmiC9ExZxHNRIO5MnyOOR7LLuZPsr17uFK2aZGrh3T-o3Lkj4bcYsoj2MUwrg/w260-h640/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(37).jpg" title="Brahmin has been proud - Osho" width="260" /></a></div><br /><p></p><h1 style="text-align: center;">ब्राह्मण महाभिमानी रहा है - ओशो </h1><p>शांत स्वभाव और ब्राह्मण? तो ये दुर्वासा जैसे ऋषि किसने पैदा किए? जो जरा सी बात में अभिशाप दे डालें। और ऐसे अभिशाप कि इस जन्म में नहीं, अगले जन्मों तक बिगाड़ दें। जन्मों-जन्मों तक तुम्हारा पीछा करें। और ये ब्राह्मण हैं! ब्राह्मण ही नहीं हैं, ऋषि हैं, मुनि हैं। और इनको अभी भी ऋषि-मुनि कहने में किसी को शर्म नहीं, किसी को संकोच नहीं। तुम जरा अपने ऋषि-मुनियों की कथाएं तो पढ़ो। अपने ब्राह्मणों का पिछला हिसाब-किताब तो देखो। इनमें तुम्हें शांत स्वभाव लोग मिलेंगे? न तो बुद्ध ब्राह्मण हैं, न महावीर ब्राह्मण हैं। </p><p><span> </span><span> </span>इस देश में जिन्होंने शांति को उपलब्ध किया है, उनमें ब्राह्मणों का कहीं नाम नहीं आता, कहीं उल्लेख नहीं आता। ब्राह्मण महाभिमानी रहा है। स्वभावतः, वह शिखर पर था। वह सबके सिर पर बैठा था। अभिमान बिलकुल स्वाभाविक था। हां, विनम्रता का ढोंग करता है। क्यों? क्योंकि विनम्रता को ही सम्मान मिलता है। इस गणित को समझो। विनम्रता को सम्मान मिलता है इसलिए विनम्र हो जाता है। लेकिन सम्मान पाने की आकांक्षा में यह विनम्रता है। </p><p><span> </span><span> </span>एक सज्जन ने, चंद्रकांत त्रिवेदी ने प्रश्न पूछा है कि आप में विनम्रता नहीं दिखाई पड़ती। जब आप कहते हैं-- 'मेरे संन्यासी', तो यह तो अहंकार हो गया। इस बात में सचाई है। मुझमें विनम्रता बिलकुल नहीं, क्योंकि विनम्रता तो केवल अहंकार का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। अहंकार ही नहीं तो विनम्रता मुझमें कैसे होगी? मैं विनम्र बिलकुल नहीं हूं। मैं तो जैसा हूं वैसा हूं। न अहंकारी हूं, न विनम्र हूं। रह गए 'मेरे संन्यासी' तो क्या मैं यह कहूं कि चंद्रकांत त्रिवेदी, _ 'तुम्हारे संन्यासी'? सिर्फ विनम्र होने के लिए! भाड़ में जाए ऐसी विनम्रता। मुझे न कोई सम्मान चाहिए, इसलिए क्यों विनम्र होने का धोखा-धंधा करूं? सच्ची बात कहूंगा। मेरे संन्यासी हैं, अब मैं करूं क्या? मैं नहीं हूं, मगर संन्यासी तो मेरे हैं। मैं नहीं हूं, इसीलिए तो ये मेरे संन्यासी हैं। यह ' मेरे' तो केवल भाषा की बात है। अब क्या सिर्फ इससे बचने के लिए यह कहं कि 'आपके संन्यासी'? नहीं, ऐसी विनम्रता, ऐसी कर्तव्यपरायणता, ऐसी शांति में मेरा कोई भरोसा नहीं।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-65744343287369513452023-10-07T07:47:00.000-07:002023-10-07T07:47:00.146-07:00 भारत की पूरी कौम बूढी क्यों हो गई है - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6Mty1wt5-NmdWKzJqxvFAvwUh_QSoBbdZBs8EwwYjxW04EVzijCYmshA5PnEw9MuR0cE_maSnLNIZ_U63K9Zgcv4vnHDg9xGzR3cz5KtcrXTrpOK_zyli5Ibsmm3zw64hXfhI2dmCBBbiAPwdbzejBvecqroZ02iFNid-DheCPLKPvZPKum3nL1-hdA/s800/Osho%20In%20Greese%20(45).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Why the whole nation of India has become old - Osho" border="0" data-original-height="800" data-original-width="533" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj6Mty1wt5-NmdWKzJqxvFAvwUh_QSoBbdZBs8EwwYjxW04EVzijCYmshA5PnEw9MuR0cE_maSnLNIZ_U63K9Zgcv4vnHDg9xGzR3cz5KtcrXTrpOK_zyli5Ibsmm3zw64hXfhI2dmCBBbiAPwdbzejBvecqroZ02iFNid-DheCPLKPvZPKum3nL1-hdA/w426-h640/Osho%20In%20Greese%20(45).jpg" title="Why the whole nation of India has become old - Osho" width="426" /></a></div><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;"> भारत की पूरी कौम बूढी क्यों हो गई है - ओशो </h1><p>स्वामी राम जापान गए। जिस जहाज पर वह थे, एक नब्बे वर्ष का जर्मन बूढा चीनी भाषा सीख रहा था। अब चीनी भाषा सीखनी बहुत कठिन बात है। शायद मनुष्य की जितनी भाषाएं हैं, उनमें सबसे ज्यादा कठिन बात है। क्योंकि चीनी भाषा के कोई वर्णाक्षर नहीं होते, कोई क ख ग नहीं होता। वह तो चित्रों की भाषा है। इतने चित्रों को सीखना नब्बे वर्ष की उम्र में! अंदाजन किसी भी आदमी को दस वर्ष लग जाते हैं ठीक से चीनी भाषा सीखने में। तो नब्बे वर्ष का बूढा सीख रहा है सुबह से सांझ तक, यह कब सीख पाएगा? सीखने के पहले इसके मर जाने की संभावना है। और अगर हम यह भी मान लें, बहुत आशावादी हों कि यह जी जाएगा दस-पंद्रह साल, तो भी उस भाषा का उपयोग कब करेगा? जिस चीज को दस साल सीखने में लग जाएं, अगर दस-पच्चीस वर्ष उसके उपयोग के लिए न मिलें, तो वह सीखना व्यर्थ है। लेकिन वह बूढा सुबह से सांझ तक डेक पर बैठा हुआ। है और सीख रहा है!</p><p><span> </span><span> </span>रामतीर्थ के बरदाश्त के बाहर हो गया। उन्होंने जाकर तीसरे दिन उससे कहा कि क्षमा करें, मैं आपको बाधा देना चाहता हूं। एक बात मुझे पूछनी है। आप यह क्या कर रहे हैं? यह चीनी भाषा आप कब सीख पाएंगे? आपकी उम्र तो नब्बे वर्ष हुई! और उस बूढ? आदमी ने रामतीर्थ की तरफ देखा और उसने कहा कि जब तक मैं जिंदा हूं, तब तक जिंदा हूं। और जब तक मैं जिंदा हूं, तब तक मर नहीं गया हूं। मरने का चिंतन करके मैं मरने के पहले नहीं मरना चाहता हूं। और अगर मरने का हम चिंतन करें कि कल मैं मर जाऊंगा, तो यह तो मुझे जन्म के पहले दिन से ही विचार करना पड़ता कि कल मैं मर सकता हूं, कभी भी मर सकता हूं। तो फिर मैं जी भी नहीं पाता। लेकिन नब्बे साल मैं जीया हूं। और जब तक मैं जी रहा हूं, तब तक सीलूँगा, ज्यादा से ज्यादा जानूंगा, ज्यादा से ज्यादा जीऊंगा। क्योंकि जब तक जी रहा हूं, तब तक एक-एक क्षण का पूरा उपभोग करना जरूरी है ताकि मेरा पूरा आत्म-विकास हो।</p><p><span> </span><span> </span>और उसने रामतीर्थ से पूछा कि आपकी उम्र क्या है? रामतीर्थ की उम्र तो केवल बत्तीस वर्ष थी। वे बहत झेंपे होंगे मन में, और कहा कि सिर्फ बत्तीस वर्ष। तो उस बूढे आदमी ने जो कहा था, वह पूरे भारत को सुन लेना चाहिए। और उस बूढ़े आदमी ने कहा था कि तुम्हें देख कर मैं समझता हूं कि तुम्हारी पूरी कौम बूढी क्यों हो गई है। तुम्हारी पूरी कौम से यौवन, शक्ति, ऊर्जा क्यों चली गई है। तुम क्यों मुर्दे की तरह जी रहे हो पृथ्वी पर। क्योंकि तुम मृत्यु के संबंध में अत्यधिक विचार करते हो और जीवन के संबंध में जरा भी नहीं। शास्त्र भरे पड़े हैं, जो नर्क में क्या है और कहां--पहला नर्क कहां है, दूसरा नर्क कहां है, तीसरा कहां है, सातवां कहां है--उस सबकी ब्योरेवार व्यवस्था बताते हैं। पूरे नक्शे बनाए हैं। स्वर्ग कहां है, सात स्वर्ग हैं, कि कितने स्वर्ग हैं, उन सबका हिसाब दिया हुआ है। नर्क और स्वर्ग की पूरी ज्यॉग्राफी हमने खोज ली है। लेकिन पृथ्वी की ज्यॉग्राफी खोजने के लिए पश्चिम के लोगों का हमें इंतजार करना पड़ा। वह हम नहीं खोज पाए। क्योंकि पृथ्वी पर हम जीते हैं, उसके भूगोल की जानकारी की हमने कोई फिक्र न की। लेकिन जिन स्वर्गों और नों का हमें कोई संबंध नहीं है, उनकी हमने इस संबंध में पूरी जानकारी कर ली है। </p><p><span> </span><span> </span><span> </span>हमने इतने डिटेल्स में व्यवस्था की है कि अगर कोई पढ़ेगा, तो यह नहीं कह सकता कि यह कोई काल्पनिक लोगों ने लिखा होगा। एक-एक इंच हमने इंतजाम कर दिया है कि वहां कैसा नर्क है, कितनी आग जलती है, कितने कड़ाहे जलते हैं, कितने राक्षस हैं और किस तरह लोगों को जलाते हैं और क्या करते हैं। स्वर्ग में क्या है, वह हमने । इंतजाम कर लिया है। लेकिन इस जमीन पर क्या है? इस जमीन की हमने कोई फिक्र नहीं की, क्योंकि यह जमीन तो एक विश्रामगृह है, मर जाना है यहां से तो जल्दी। इसकी चिंता करने की क्या जरूरत है? जीवन अधार्मिक है, क्योंकि जीवन की चिंता हमने नहीं की। जीवन धार्मिक नहीं हो सकता जब तक धर्म इस जीवन के संबंध में विचार करे, इस जीवन को व्यवस्था दे, इस जीवन को वैज्ञानिक बनाए--जब तक यह नहीं होगा, तब तक जीवन धार्मिक नहीं हो सकता।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-5500959607679475942023-09-30T07:12:00.000-07:002023-09-30T07:12:00.130-07:00दस हजार सालों से ब्राह्मण भारत की छाती पर बैठा है - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjy2ulJgdyydQ7cP1IbTlRnYDUJkWryXFf9BTaqiLWXu3Rbjd1ecoJ2xhH5aR62FC-tUMi4p3zrQPm_GF73XsoMXjjJjNyWBT9jCk-c_6f62BJTkHTedlSCKwabsUIlDViiTJEemIYY7-SUi_mXGQ0KcWyZ2_hz_YEKSr-ZbQdZSGzgtCedIRXoOqTfMQ/s674/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(38).JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="For ten thousand years the brahmin has been sitting on the chest of India - Osho" border="0" data-original-height="448" data-original-width="674" height="426" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjy2ulJgdyydQ7cP1IbTlRnYDUJkWryXFf9BTaqiLWXu3Rbjd1ecoJ2xhH5aR62FC-tUMi4p3zrQPm_GF73XsoMXjjJjNyWBT9jCk-c_6f62BJTkHTedlSCKwabsUIlDViiTJEemIYY7-SUi_mXGQ0KcWyZ2_hz_YEKSr-ZbQdZSGzgtCedIRXoOqTfMQ/w640-h426/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(38).JPG" title="For ten thousand years the brahmin has been sitting on the chest of India - Osho" width="640" /></a></div><br /><p></p><h1 style="text-align: center;">दस हजार सालों से ब्राह्मण भारत की छाती पर बैठा है - ओशो </h1><p>मनुस्मृति हिंदू धर्म का मूल आधार-ग्रंथ है, जिससे हिंदू की नीति निर्धारित होती है। वह हिंदुओं का संविधान है। मनुस्मृति कहती है: 'स्त्रियों को कोई अधिकार नहीं अध्ययन-मनन का।' पचास प्रतिशत संख्या को काट दिया। 'शूद्रों को कोई अधिकार नहीं अध्ययन-मनन का।' और जो बचे थे, उनमें से पचास प्रतिशत काट दिए। अब अधिकार रह गया सिर्फ ब्राह्मण का, क्षत्रिय का, वैश्य का। वैश्य का अधिकार इतना ही है कि वह व्यवसाय के योग्य शिक्षा प्राप्त करे। क्षत्रिय का अधिकार इतना ही है कि वह युद्ध के लड़ने योग्य शिक्षा प्राप्त करे। यही कृष्ण समझा रहे थे अर्जुन को कि तू क्षत्रिय है, तेरा धर्म लड़ना है। संन्यास तेरा धर्म नहीं है। यह ध्यान और समाधि लगाना तेरा धर्म नहीं है। तू अपना कर्तव्य निभा। ब्राह्मणों जैसी बातें न कर। क्षत्रिय है, तू लड़! नहीं तेरी अवमानना होगी, अपमान होगा। </p><p><span> </span><span> </span>क्षत्रिय को भड़काने के लिए 'अपमान' शब्द एकदम जरूरी है। बस अपमान शब्द ले आओ कि क्षत्रिय भड़का। मैं मनाली जा रहा था। तो बड़ी कार, और बीच में वर्षा हो गई। तो जो सरदार मेरी कार को चला रहा था, उसने बीच रास्ते में गाड़ी रोक दी। क्योंकि थोड़ी फिसलन थी, रास्ता चंडीगढ़ और मनाली के बीच बहुत संकरा है और खतरनाक है। और गाड़ी बड़ी थी। और बहुत सम्हल कर चलना जरूरी था। और जगह-जगह कीचड़ थी। और गाड़ी फिसलती थी, चढ़ाई भी थी। उसने कहा, 'मैं आगे नहीं जा सकता।' वह तो नीचे उतर कर बैठ गया। मैंने उससे कहा, 'यूं कर, तू पीछे बैठ जा, गाड़ी मैं चलाता हूं।' उसने कहा कि मैं जिंदगी भर पहाड़ियों में गाड़ी चलाता रहा और मुझे खतरा है कि गाड़ी गिर जाएगी और आपने शायद जिंदगी में कभी ऐसे खतरनाक रास्ते पर गाड़ी न चलाई होगी। मैं इस गाड़ी में नहीं बैठ सकता। आपको चलाना हो तो आप चलाएं। मैंने कहा, 'मुझे रास्ता मालूम नहीं, तू सिर्फ रास्ता बता।' मगर वह इसके लिए भी राजी नहीं। वह कहे कि मैं अपनी जान क्यों खतरे में डालूं? मैं तो यहीं से वापस लौटूंगा।</p><p><span> </span><span> </span>बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई। तभी पंजाब के आई.जी. थे, वे भी मनाली शिविर में भाग लेने आ रहे थे, सरदार थे, उनकी जीप आकर रुकी। मैंने उनसे कहा कि अब आप ही कुछ करो। तरबूज खरबूज की भाषा समझते हैं! यह मेरी भाषा समझता नहीं। अब दोनों सरदार निपट लो। और तत्क्षण बात बन गई। आई.जी. सरदार ने कहा, 'अरे शर्म नहीं आती खालसा का आदमी होकर? वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतह! उठ!' और वह सरदार एकदम उठ आया, एकदम गाड़ी चलाने लगा। फिर उसने रास्ते भर, खतरनाक और आगे रास्ता खतरनाक था, फिर उसने कुछ नहीं कहा। जहां जरा मैं उसको ढीला-ढाला देखू, कहूं: वाहे गुरु जी का खालसा! और वह एकदम फिर सम्हल जाए और गाड़ी चलाने लगे। </p><p><span> </span><span> </span>वही कृष्ण कर रहे हैं अर्जुन के साथ: 'अरे तू क्षत्रिय है! क्या अपमान करवाएगा? बेइज्जती करवाएगा? लड़ना, मरना और मारना तेरा धर्म है। तू ब्राह्मण की भाषा बोल रहा है? कि संन्यास ले लूंगा, जंगल में रहूंगा, मुझे नहीं चाहिए राजपाट! यह धन का मैं क्या करूंगा? अरे मैं तो शांति से बैलूंगा!' तो क्षत्रिय को लड़ना, बस उतनी कला सीखनी है। तब रह गया ज्ञान, ध्यान, जीवन का जो चरम अर्थ है, जीवन की जो चरम सुगंध है--उसका अधिकारी रह गया केवल ब्राह्मण। </p><p><span> </span><span> </span>दस हजार सालों से ब्राह्मण भारत की छाती पर बैठा है, अब भी यह उतरना नहीं चाहता। यही इसके पीछे है-- इन सारे उपद्रवों के पीछे है।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-24132608729268081062023-09-23T07:42:00.000-07:002023-09-23T07:42:00.136-07:00हम धार्मिक नहीं हैं और हम अपने को धार्मिक समझ रहे हैं - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhOziKTLMZrxdpVqaMbHXAxCO3tJCBY3ctOsUFvzHj3kBP9hQj0k68nv7rOKUluFUycmrM7ZpVkFMos1ztxmkXrvndHE7UvxMmByqugkLA9GDNIhGWp0z9DlYCfvUfDlEz1ulHaTu6zCaDudxSmmS-_FBQ0gCq9HAAUiP8K0u-2atyOw_3FLS146pv5wQ/s800/Osho%20In%20Greese%20(46).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="We are not religious and we consider ourselves to be religious - Osho" border="0" data-original-height="800" data-original-width="523" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhOziKTLMZrxdpVqaMbHXAxCO3tJCBY3ctOsUFvzHj3kBP9hQj0k68nv7rOKUluFUycmrM7ZpVkFMos1ztxmkXrvndHE7UvxMmByqugkLA9GDNIhGWp0z9DlYCfvUfDlEz1ulHaTu6zCaDudxSmmS-_FBQ0gCq9HAAUiP8K0u-2atyOw_3FLS146pv5wQ/w418-h640/Osho%20In%20Greese%20(46).jpg" title="We are not religious and we consider ourselves to be religious - Osho" width="418" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;"> हम धार्मिक नहीं हैं और हम अपने को धार्मिक समझ रहे हैं - ओशो </h1><p>मैंने सुना है, एक पागलखाने का नेहरू निरीक्षण करने गए थे। उस पागलखाने में उन्होंने जाकर पूछा कि कभी कोई यहां ठीक होता है? स्वस्थ होता है? रोग से मुक्त होता है? तो पागलखाने के अधिकारियों ने कहा कि निश्चित ही, अक्सर लोग ठीक होकर चले जाते हैं। अभी एक आदमी ठीक हुआ है और हम उसे तीन दिन । पहले छोड़ने को थे, लेकिन हमने रोक रखा कि आपके हाथ से ही उसे हम मुक्ति दिलाएंगे। उस पागल को लाया गया, जो ठीक हो गया था। उसे नेहरू से मिलाया गया। नेहरू ने उसे शुभकामना दी कि तुम स्वस्थ हो गए हो, बहुत अच्छा है। </p><p><span> </span><span> </span>चलते-चलते उस आदमी ने पूछा कि मैं लेकिन आपका नाम नहीं पूछ पाया कि आप कौन हैं? नेहरू ने कहा, मेरा नाम जवाहरलाल नेहरू है। वह आदमी हंसने लगा। और उसने । कहा, आप घबड़ाइए मत। कुछ दिन आप भी इस जेल में रह जाएंगे, तो ठीक हो जाएंगे। पहले मुझे भी यह खयाल था कि मैं जवाहरलाल नेहरू हूं। तीन साल पहले जब आया था, तो मुझको भी यही भ्रम था--यही भ्रम मुझको भी हो गया था कि मैं जवाहरलाल हूं। लेकिन तीन साल में इन सब अधिकारियों की कृपा से मैं बिलकुल ठीक हो गया हूं। मेरा यह भ्रम मिट गया। आप भी घबड़ाइए मत। आप भी दो-तीन साल रह जाएंगे, तो बिलकुल ठीक हो सकते हैं। आदमी के पागलपन का लक्षण यह है कि वह जो है, नहीं समझ पाता; और जो नहीं है, उसके साथ तादात्म्य कर लेता है कि वह मैं हूं। भारत को मैं धार्मिक अर्थों में एक विक्षिप्त स्थिति में समझता हूं, मैडनेस की स्थिति में समझता हं। हम धार्मिक नहीं हैं और हम अपने को धार्मिक समझ रहे हैं।</p><p><b> - ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-89648386547118356592023-09-16T07:10:00.000-07:002023-09-16T07:10:00.129-07:00जन्मना ब्राह्मण कैसे वस्तुतः शांत हो सकता है? - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEje4Zhe2qYRIKgTOmnNiQIS1HudJZbCUemaMDd8Upckh9wwwmgMLIPFD506BncfL9bZPQf4qHStwNhsx34YeD85APLYkROJ_edZ0phzRfmSexHX1CBjzD7aASH1OU9R-dKCESgI6U1PNrB36goNc_vgg_qRf9wxPVwupnTwDgOx9I2rKys9O9B7nwlDcQ/s636/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(39).JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="There is no shame to these people who are running the anti-reservation movement - Osho" border="0" data-original-height="426" data-original-width="636" height="428" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEje4Zhe2qYRIKgTOmnNiQIS1HudJZbCUemaMDd8Upckh9wwwmgMLIPFD506BncfL9bZPQf4qHStwNhsx34YeD85APLYkROJ_edZ0phzRfmSexHX1CBjzD7aASH1OU9R-dKCESgI6U1PNrB36goNc_vgg_qRf9wxPVwupnTwDgOx9I2rKys9O9B7nwlDcQ/w640-h428/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(39).JPG" title="There is no shame to these people who are running the anti-reservation movement - Osho" width="640" /></a></div><br /><p></p><h1 style="text-align: center;">जन्मना ब्राह्मण कैसे वस्तुतः शांत हो सकता है? - ओशो </h1><p>विचारशील व्यक्ति शांत कैसे हो सकता है? जन्मना ब्राह्मण कैसे वस्तुतः शांत हो सकता है? हां, शांत होने का प्रदर्शन कर सकता है, अभिनय कर सकता है। और अभिनय ही तुम्हें दिखाई पड़ेगा। जरा कुरेदो उसे भीतर और तुम अशांति पाओगे, गहन अशांति पाओगे। जरा सा कुरेद दो और क्रोध भभक उठेगा। बिना कुरेदे तुम्हें पता नहीं चलेगा। ऊपर-ऊपर से देखा तो चंदन-वंदन लगाए, चुटैया बांधे, जनेऊ पहने--मुख में राम बगल में छुरी--मुंह को ही देखा तो छुरी तुम्हें दिखाई न पड़ेगी।</p><p><span> </span><span> </span>यही ब्राह्मण इस देश में, इस देश की बड़ी से बड़ी संख्या, शूद्रों को सता रहे हैं सदियों से। ये कैसे शांत लोग हैं? और अभी भी इनका दिल नहीं भरा। आज भी वही उपद्रव जारी है। अभी सारे देश में आग फैलती जाती है। और गुजरात से क्यों शुरू होती है यह आग? पहले भी गुजरात से शुरू हुई थी। तब ये जनता के बुद्ध सिर पर आ गए थे। अब फिर गुजरात से शुरू हुई है। गुजरात से शुरू होने का कारण साफ है। यह महात्मा गांधी के रेणाम है, यह उनकी शिक्षा का परिणाम है। वे दमन सिखा गए हैं। और सबसे ज्यादा गुजरात ने उनको माना है। क्योंकि गुजरात के अहंकार को बड़ी तृप्ति मिली कि गुजरात का बेटा और पूरे भारत का बाप हो गया! अब और क्या चाहिए? गुजराती का दिल बहुत खुश हुआ। उसने जल्दी से खादी पहन ली। मगर खादी के भीतर तो वही आदमी है जो पहले था। ।</p><p><span> </span><span> </span>महात्मा गांधी के भीतर खुद वही आदमी था जो पहले था। उसमें भी कोई फर्क नहीं था। महात्मा गांधी बहुत खिलाफ थे इस बात के कि शूद्र हिंदू धर्म को छोड़ें। उन्होंने इसके लिए उपवास किया था--आजन्म, आजीवन। मर जाने की धमकी दी थी--आमरण अनशन--कि शूद्र को अलग मताधिकार नहीं होना चाहिए। क्यों? पांच हजार सालों में इतना सताया है उसको। कम से कम उसे अब कुछ तो सत्ता दो, कुछ तो सम्मान दो। उसके अलग मताधिकार से घबड़ाहट क्या थी? घबड़ाहट यह थी कि शूद्रों की संख्या बड़ी है। और शूद्र ब्राह्मणों को पछाड़ देंगे, अगर उन्हें मत का अधिकार पृथक मिल जाए। तो मत का अधिकार रुकवाया गांधी ने। आमरण अनशन की धमकी हिंसा है, अहिंसा नहीं। और एक आदमी के मरने से या न मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। यूं ही मरना है। लेकिन दबाव डाला गया शूद्रों पर सब तरह का कि तुम पर यह लांछन लगेगा कि महात्मा गांधी को मरवा डाला। यूं ही तुम लांछित हो, ऐसे ही तुम अछूत हो; ऐसे ही तुम्हारी छाया भी छ जाए किसी को तो पाप हो जाता है; तुम्हें और लांछन अपने सिर लेने की झंझट नहीं लेनी चाहिए। बहुत दबाव डाला गया। दबाव डाल कर गांधी का अनशन तुड़वाया गया और शूद्रों का मताधिकार खो गया। </p><p><span> </span><span> </span>अब गुजरात में उपद्रव शुरू हुआ है कि शूद्रों को जो भी आरक्षित स्थान मिलते हैं विश्वविद्यालयों में, मेडिकल कालेजों में, इंजीनियरिंग कालेजों में, वे नहीं मिलने चाहिए। क्यों? 'क्योंकि स्वतंत्रता में और लोकतंत्र में सबको समान अधिकार होना चाहिए।' मगर शूद्रों को तुमने पांच हजार साल में इतना दबाया है कि उनके बेचारों के समान अधिकार का सवाल ही कहां उठता है? 'सबको गुण के अनुसार स्थान मिलना चाहिए।'</p><p><span> </span><span> </span>लेकिन पांच हजार साल से जिनको किताबें भी नहीं छूने दी गईं, जिनको किसी तरह की शिक्षा नहीं मिली, वे ब्राह्मणों से, क्षत्रियों से, वैश्यों से कैसे टक्कर ले सकेंगे? उनके बच्चे तो पिट जाएंगे। उनके बच्चे तो कहीं भी नहीं टिक सकते। उनके बच्चों को तो विशेष आरक्षण मिलना ही चाहिए। और यह कोई दस-बीस वर्ष तक में मामला हल होने वाला नहीं है। पांच हजार, दस हजार साल जिनको सताया गया है, तो कम से कम सौ, दो सौ साल तो निश्चित ही उनको विशेष आरक्षण मिलना चाहिए, ताकि इस योग्य हो जाएं कि वे खुद सीधा मुकाबला कर सकें। जिस दिन इस योग्य हो जाएंगे, उस दिन आरक्षण अपने आप बंद हो जाएगा। लेकिन आरक्षण उनको नहीं मिलना चाहिए, इसके पीछे चालबाजी है, षडयंत्र है। षडयंत्र वही है, क्योंकि सबको जाहिर है। जिनके पैर दस हजार साल तक तुमने बांध रखे और अब दस हजार साल के बाद तुमने उनकी पैर की जंजीर तो अलग कर ली, तुम कहते हो, सबको समान अधिकार है, इसलिए तुम भी दौड़ो दौड़ में। लेकिन जो लोग दस हजार साल से दौड़ते रहे हैं, धावक हैं, उनके साथ जिनके पैर दस हजार साल तक बंधे रहे हैं इनको दौड़ाओगे, तो सिर्फ फजीहत होगी इनकी। ये दो-चार कदम भी न चल पाएंगे और गिर जाएंगे। ये कैसे जीत पाएंगे? ये प्रतिस्पर्धा में कैसे खड़े हो पाएंगे? </p><p><span> </span><span> </span>थोड़ी शर्म भी नहीं है इन लोगों को जो आरक्षण-विरोधी आंदोलन चला रहे हैं। और यह आग फैलती जा रही है। अब राजस्थान में पहुंच गई; अब मध्यप्रदेश में पहुंचेगी। और एक दफे बिहार में पहंच गई तो बिहार तो बुद्धओं का अडडा है। बस गुजरात के उल्लू और बिहार के बुद्ध अगर मिल जाएं, तो पर्याप्त। इस देश की बरबादी के लिए फिर कोई और चीज की जरूरत नहीं है। और ज्यादा देर नहीं लगेगी। जो बिहार के बुद्ध हैं वे तो हर मौके का उपयोग करना जानते हैं। जरा बुद्धू हैं इसलिए देर लगती है उनको। गुजरात से उन तक खबर पहुंचने में थोड़ा समय लगता है, मगर पहुंच जाएगी। और एक दफा उनके हाथ में मशाल आ गई तो फिर बहुत मुश्किल है। फिर उपद्रव भारी हो जाने वाला है। और यह आग फैलने वाली है, यह बचने वाली नहीं है। और इस सब आग के पीछे ब्राह्मण है। उसको डर पैदा हो गया है। ब्राह्मण ने बड़ी ऊंची तरकीब की थी।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-12799447340263411602023-09-09T07:46:00.000-07:002023-09-09T07:46:00.143-07:00भारत धार्मिक नहीं हो सका, क्योंकि भारत ने परलौक की धारणा विकसित की - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMrebi9TL8Pbh2GO8n74aMuwFuBE_H6eXR9nzdDm976tvVTzuaBaZ3VGzIRN4UyVcW7RBexzFfknY2WBjQXWQ4r0YPq2hDN4yDY9wNabsxCLDCs9S0SLhMj3oHQmpP8_tYJp08YZOKN08HsQzsLygW2DM4algdz562tKEuOfSP41M6DIluv4MArEzF0w/s800/Osho%20In%20Greese%20(47).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="India could not be religious because India developed the concept of the afterworld - Osho" border="0" data-original-height="800" data-original-width="527" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMrebi9TL8Pbh2GO8n74aMuwFuBE_H6eXR9nzdDm976tvVTzuaBaZ3VGzIRN4UyVcW7RBexzFfknY2WBjQXWQ4r0YPq2hDN4yDY9wNabsxCLDCs9S0SLhMj3oHQmpP8_tYJp08YZOKN08HsQzsLygW2DM4algdz562tKEuOfSP41M6DIluv4MArEzF0w/w422-h640/Osho%20In%20Greese%20(47).jpg" title="India could not be religious because India developed the concept of the afterworld - Osho" width="422" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;"> भारत धार्मिक नहीं हो सका, क्योंकि भारत ने परलौक की धारणा विकसित की - ओशो </h1><p>पहला सूत्र: भारत धार्मिक नहीं हो सका, क्योंकि भारत ने धर्म की एक धारणा विकसित की जो पारलौकिक थी; जो मृत्यु के बाद के जीवन के संबंध में विचार करती थी, जो इस जीवन के संबंध में विचार नहीं करती थी। हमारे हाथ में यह जीवन है। मृत्यु के बाद का जीवन अभी हमारे हाथ में नहीं है। होगा, तो मरने के बाद होगा। भारत का धर्म जो है, वह मरने के बाद के लिए तो व्यवस्था करता है, लेकिन जीवन जो अभी हम जी रहे हैं पृथ्वी पर, उसके लिए हमने कोई सुव्यवस्थित व्यवस्था नहीं की। स्वाभाविक परिणाम हआ। परिणाम यह हुआ कि यह जीवन हमारा अधार्मिक होता चला गया। और उस जीवन की व्यवस्था के लिए जो कुछ हम कर सकते थे थोड़ा-बहुत, वह हम करते रहे। कभी दान करते रहे, कभी तीर्थयात्रा करते रहे, कभी गुरु की, शास्त्रों के चरणों की सेवा करते रहे। और फिर हमने यह विश्वास किया कि जिंदगी बीत जाने दो, जब बूढ़े हो जाएंगे, तब धर्म की चिंता कर लेंगे। अगर कोई जवान आदमी उत्सुक होता है धर्म में तो घर के बड़े-बूढे कहते हैं, अभी तुम्हारी उम्र नहीं है कि तुम धर्म की बातें करो। अभी तुम्हारी उम्र नहीं। अभी खेलने-खाने के, मजेमौज के दिन हैं। ये तो बूढों की बातें हैं। जब आदमी बूढा हो जाता है, तब धर्म की बातें करता है। मंदिरों में जाकर देखें, मस्जिदों में जाकर देखें, वहां वृद्ध लोग दिखाई पड़ेंगे। वहां जवान आदमी शायद ही कभी दिखाई पड़े। क्यों?</p><p><span> </span><span> </span>हमने यह धारणा बना ली कि धर्म का संबंध है उस लोक से, मृत्यु के बाद जो जीवन है उससे। तो जब हम मरने के करीब पहुंचेंगे तब विचार करेंगे। फिर जो बहुत होशियार थे उन्होंने कहा कि मरते क्षण में अगर एक दफे राम का नाम भी ले लो, भगवान का स्मरण कर लो, गीता सुन लो, गायत्री सुन लो, नमोकार मंत्र कान में डाल दो--आदमी पार हो जाता है। तो जीवन भर परेशान होने की जरूरत क्या है! मरते-मरते आदमी के कान में मंत्र फूंक देते हैं और निपटारा हो जाता है, आदमी धार्मिक हो जाता है। यहां तक बेईमान लोगों ने कहानियां गढ़ ली हैं कि एक आदमी मर रहा था, उसके लड़के का नाम नारायण था। मरते वक्त उसने अपने लड़के को बुलाया कि नारायण, तू कहां है? और भगवान धोखे में आ गए! वे समझे कि मुझे बुलाता है और उसको स्वर्ग भेज दिया। ऐसे बेईमान लोग, ऐसे धोखेबाज लोग, जिन्होंने ऐसी कहानियां गढ़ी होंगी, ऐसे शास्त्र रचे होंगे, उन्होंने इस मुल्क को अधार्मिक होने की सारी व्यवस्था कर दी। यह देश धार्मिक नहीं हो पाया पांच हजार वर्षों के प्रयत्न के बाद भी, क्योंकि हमने जीवन से धर्म का संबंध नहीं जोड़ा, मृत्यु से धर्म का संबंध जोड़ा। तो ठीक है, मरने के बाद--वह बात इतनी दूर है कि जो अभी जिंदा हैं, उन्हें उसका खयाल भी नहीं हो सकता। </p><p><span> </span><span> </span>बच्चों को कैसे उसका खयाल हो! अभी बच्चों को मृत्यु का कोई सवाल नहीं है। जवानों को मृत्यु का कोई सवाल नहीं है। सिर्फ वे लोग जो मृत्यु के करीब पहुंचने लगे और मृत्यु की छाया जिन पर पड़ने लगी, उन वृद्धजनों के लिए भर धर्म का विचार जरूरी था। और स्मरण रहे कि वृद्धों से जीवन नहीं बनता, जीवन बच्चों और जवानों से बनता है। जो जीवन से विदा होने लगे वे वृद्ध हैं। तो वृद्ध अगर धार्मिक भी हो जाएं तो जीवन धार्मिक नहीं होगा, क्योंकि वृद्ध धार्मिक होते-होते विदा के स्थान पर पहुंच जाएंगे, वे विदा हो जाएंगे। जिनसे जीवन बनना है, जो जीवन के घटक हैं, उन छोटे बच्चों और जवानों से धर्म का क्या संबंध है? उनके लिए धर्म ने कोई भी व्यवस्था नहीं दी कि वे कैसे धार्मिक हों। फिर जब पारलौकिक बात हो गई धर्म की, तो कम ही लोगों के लिए चिंता रही उसकी। क्योंकि परलोक इतना दूर है कि उसकी चिंता सामान्य मनुष्य के लिए करनी कठिन है। कुछ लोग, जो अति लोभी हैं, इतने लोभी हैं कि वे इस जीवन का भी इंतजाम करना चाहते हैं और मरने के बाद का भी इंतजाम करना चाहते हैं, जिनकी ग्रीड, जिनका लोभ इतना ज्यादा है, वे लोग भर धार्मिक होने का विचार करते हैं। जिनका लोभ थोड़ा कम है, वे फिक्र नहीं करते, कि मरने के बाद जो होगा वह देखा जाएगा।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-90481169312047325432023-09-02T07:04:00.000-07:002023-09-02T07:04:00.143-07:00जिसकी अनुदारता तलवार में नहीं निकल सकती, उसकी तर्कों में निकलती है - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNmvhmEtxb-y4jDbHbB49G0h9bHkEsf5rfuBGTAdSiFrjxe7t6WU1cub9Xp5WTMrfaF0-EpXVdUWbSYNiJmQQWmr5Au8bMCFuNGwkVu_vHDL6st7Gd6rfJwF48YgWacvcYh1f4_ya8OUXG3N4H5qLi4yctTUNT1H8HJ6mhDQdBKHpExmd2a4LFs4h1sg/s800/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(40).jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="One whose generosity cannot come out in the sword, comes out in his arguments, in the sword of reason - Osho" border="0" data-original-height="800" data-original-width="638" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiNmvhmEtxb-y4jDbHbB49G0h9bHkEsf5rfuBGTAdSiFrjxe7t6WU1cub9Xp5WTMrfaF0-EpXVdUWbSYNiJmQQWmr5Au8bMCFuNGwkVu_vHDL6st7Gd6rfJwF48YgWacvcYh1f4_ya8OUXG3N4H5qLi4yctTUNT1H8HJ6mhDQdBKHpExmd2a4LFs4h1sg/w510-h640/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(40).jpg" title="One whose generosity cannot come out in the sword, comes out in his arguments, in the sword of reason - Osho" width="510" /></a></div><div><br /></div><h1 style="text-align: center;">जिसकी अनुदारता तलवार में नहीं निकल सकती, उसकी तर्कों में निकलती है - ओशो </h1><p></p><p>ईसाइयों ने जिंदा आदमी जलाए--मगर इस आशा में कि यह धर्म का कार्य हो रहा है। और यही हिंदुओं ने किया है। और यही सारे धर्म छोटे-मोटे भेदों से करते रहे हैं। जो जिनकी संख्या छोटी है, नहीं कर सके हैं, तो वे दिल में छिपाए बैठे हैं आग। संख्या छोटी है, बस इसलिए मरने-मारने की भाषा नहीं बोल सकते, तो सहिष्णुता की बातें बोलते हैं, उदारता की बातें बोलते हैं। मगर भीतर उनके अनुदारता भरी हुई है। वह उनकी अनुदारता तलवार में नहीं निकल सकती, तो तर्कों में निकलती है, तर्क की तलवार में निकलती है। </p><p><span> </span><span> </span>जैसे जैनों ने किसी को मारा नहीं, मार सकते नहीं थे। संभवतः सबसे पुराना धर्म है और संख्या कुल पैंतीस लाख! दस हजार साल में कुल संख्या पैंतीस लाख। दस हजार साल पहले अगर एक दंपति भी, एक जोड़ा भी जैन हुआ होता तो काफी था। दस हजार साल में बच्चों के बच्चे, उल्लू के पट्टे, पट्ठों के पट्टे पैंतीस लाख हो जाते। पैंतीस लाख कोई संख्या है? और जिस ढंग से भारत में आदमी बढ़ते हैं--कीड़े-मकोड़ों की तरह! उन्नीस सौ सैंतालीस में भारत आजाद हुआ तो आबादी थी पैंतीस करोड़। सिर्फ तीस तीस साल में आबादी दुगनी हो गई, आज आबादी है सत्तर करोड़। क्या उत्पादन है! क्या सृजनशीलता है! सृष्टि करना कोई अगर जानता है तो बस भारतीय ही जानते हैं। दस हजार साल में पैंतीस लाख जैन! अब बेचारे उदारता की बात न करें तो क्या करें? जैन सारे देश में सर्वधर्म-समन्वय-सम्मेलन बुलाते हैं। बुलाना पड़ता है। घबड़ाए हुए हैं, डरे हुए हैं। मगर भीतर आग जलती है। वह आग निकलती है उनकी किताबों में। उनकी किताबों में जितना जहर है उतना किसी की किताबों में नहीं। उनकी किताबों में सिर्फ तर्क है। तलवार से बचे हैं तो तर्क की तलवार उठा ली है। तो काटा-पीट में लगे हुए हैं: सब गलत है! हालांकि उनकी किताबें कोई पढ़ता नहीं सिवाय उनके, नहीं तो उनकी किताबों में जहर भरा हुआ है। कहीं न कहीं से दबी हुई मवाद निकलेगी। कर्तव्यपरायण होने से कुछ भी नहीं हो सकता।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-3857127400173541002023-08-26T07:41:00.000-07:002023-08-26T07:41:00.133-07:00स्वम को धार्मिक मान लेने और वास्तव में धार्मिक होने में फर्क है - ओशो <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTyI3loC9-2RGorv5vqTtWMOwYJOxEkdofyqQVK-ZjcVGv7MXS68p7rmX55VfYtnuLT0H2Nw06l8VG6rb28f6UnUzMSvwSyUFekoWyBA7J92h6tB9APSdmJPUxr14ifhFq7X3-I-rXoAgGxw7sIC9UdxvZmF_EFMcgegDUiZlu0zlW_xF0fAOBOQqE9w/s800/Osho%20In%20Greese%20(48).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="There is a difference between believing oneself to be religious and being truly religious - Osho" border="0" data-original-height="565" data-original-width="800" height="452" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTyI3loC9-2RGorv5vqTtWMOwYJOxEkdofyqQVK-ZjcVGv7MXS68p7rmX55VfYtnuLT0H2Nw06l8VG6rb28f6UnUzMSvwSyUFekoWyBA7J92h6tB9APSdmJPUxr14ifhFq7X3-I-rXoAgGxw7sIC9UdxvZmF_EFMcgegDUiZlu0zlW_xF0fAOBOQqE9w/w640-h452/Osho%20In%20Greese%20(48).jpg" title="There is a difference between believing oneself to be religious and being truly religious - Osho" width="640" /></a></div><br /><h1 style="text-align: center;"><br /></h1><h1 style="text-align: center;">स्वम को धार्मिक मान लेने और वास्तव में धार्मिक होने में फर्क है - ओशो </h1><p>जब तक कोई जाति, कोई समाज, कोई देश, कोई मनुष्य धार्मिक नहीं हो जाता, तब तक उसे जीवन के पूरे आनंद का, पूरी शांति । का, पूरी कृतार्थता का कोई भी अनुभव नहीं होता है। जैसे विज्ञान है बाहर के जगत के विकास के लिए और बिना विज्ञान के जैसे दीन-हीन हो जाता है समाज, दरिद्र हो जाता है, दुखी और पीड़ित और बीमार हो जाता है; विज्ञान न हो आज, तो बाहर के जगत में हम दीन-हीन, पशुओं की भांति हो जाएंगे; वैसे ही भीतर के जगत का विज्ञान धर्म है। और जब भीतर का धर्म खो जाता है, तो भीतर एक दीनता आ जाती है, हीनता आ जाती है, भीतर एक अंधेरा छा जाता है। </p><p><span> </span><span> </span>और भीतर का अंधेरा बाहर के अंधेरे से ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि बाहर का अंधेरा दो पैसे के दीए को खरीद कर मिटाया जा सकता है, लेकिन भीतर का अंधेरा तो तभी मिटता है, जब आत्मा का दीया जल जाए। और वह दीया कहीं बाजार में खरीदने से नहीं मिलता है, उस दीए को जलाने के लिए तो श्रम करना पड़ता है, संकल्प करना पड़ता है, साधना करनी पड़ती है। उस दीए को जलाने के लिए तो जीवन को एक नई दिशा में गतिमान करना पड़ता है। लेकिन इतना निश्चित है कि आज तक पृथ्वी पर सबसे ज्यादा प्रसन्न और आनंदित लोग वे ही थे, जो धार्मिक थे। उन लोगों ने ही इस पृथ्वी पर स्वर्ग को अनुभव किया है। उन लोगों ने ही इस जीवन के पूरे आनंद को, कृतार्थता को अनुभव किया है। उनके जीवन में ही अमृत की वर्षा हुई है जो धार्मिक थे। जो अधार्मिक हैं वे दुख में, पीडा में और नरक में जीते हैं।</p><p><span> </span><span> </span>धार्मिक हुए बिना कोई मार्ग नहीं है। लेकिन धार्मिक होने के लिए सबसे बड़ी बाधा इस बात से पड़ गई है कि हम इस बात को मान कर बैठ गए हैं कि हम धार्मिक हैं। फिर अब और कुछ करने की कोई जरूरत नहीं रह गई। एक भिखारी मान लेता है कि मैं सम्राट हूं, फिर बात खत्म हो गई। फिर अब उसे सम्राट होने के लिए कोई प्रयत्न करने का कोई सवाल न रहा। सस्ती तरकीब निकाल ली उसने। सम्राट हो गया है कल्पना करके। असली में सम्राट होने के लिए श्रम करना पड़ता, यात्रा करनी पड़ती, संघर्ष करना पड़ता। उसने सपना देख लिया सम्राट होने का। लेकिन उस भिखारी को हम पागल कहेंगे, क्योंकि पागल का यही लक्षण है कि वह जो नहीं है, वह अपने को मान लेता है।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0United States37.09024 -95.7128918.780006163821156 -130.869141 65.400473836178847 -60.556641tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-23086713451034758522023-08-19T07:04:00.000-07:002023-08-19T07:04:00.135-07:00कर्तव्य शब्द ही गंदा है - ओशो <p> </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwW_wzR2-DRrknWdcaihuwowCUoJyawnQg1terX8Ng1nuXv_DGTxNz88jSeZWnLAOm1_S9ZvopiI6WUsaJWrmFXv_R-nSIqrehq0Vss8v4OMsBxo6vxt_AinQ9R4PGHtGpsICOb64NSbZQtN6CNYVJm4jrk36UwBcEGxNc9Ne7XtJdFx7Q_APMTEmjlA/s674/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(41).JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="The word duty is dirty - Osho" border="0" data-original-height="450" data-original-width="674" height="428" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgwW_wzR2-DRrknWdcaihuwowCUoJyawnQg1terX8Ng1nuXv_DGTxNz88jSeZWnLAOm1_S9ZvopiI6WUsaJWrmFXv_R-nSIqrehq0Vss8v4OMsBxo6vxt_AinQ9R4PGHtGpsICOb64NSbZQtN6CNYVJm4jrk36UwBcEGxNc9Ne7XtJdFx7Q_APMTEmjlA/w640-h428/Osho%20In%20Rajneeshpuram%20(41).JPG" title="The word duty is dirty - Osho" width="640" /></a></div><div><br /></div><h1 style="text-align: center;">कर्तव्य शब्द ही गंदा है - ओशो </h1><p></p><p>कर्तव्य शब्द ही गंदा है। प्रेम से जीना समझ में आता है, कर्तव्य से जीना समझ में नहीं आता। यह तुम्हारी पत्नी है, इसलिए तुम्हारा कर्तव्य है कि इसको प्रेम करो। अब जब कोई कर्तव्य से प्रेम करेगा तो तुम सोच ही सकते हो कि प्रेम क्या खाक होगा! दिखावा होगा, वंचना होगी, धोखा होगा। ऊपर-ऊपर प्रेम होगा, भीतरभीतर घृणा होगी। और घृणा फूट-फूट कर निकलेगी। कितना दबाओगे? एक सीमा है दबाने की। कहां तक रोकोगे? एक तरफ से रोकोगे, दूसरी तरफ से बहेगी। वह घृणा तुम्हारे भीतर जो तुम इकट्ठी कर रहे हो-- कर्तव्य के नाम पर। और कर्तव्य सिखाया जा रहा है, हरेक को कर्तव्य सिखाया जा रहा है। प्रेम की तो बात ही मत करना। इस सूत्र में कहीं प्रेम नहीं आता। </p><p><span> </span><span> </span>ब्रह्मज्ञानी प्रेम से भरा होगा, लबालब होगा। यूं लबालब होगा कि प्रेम उसके ऊपर से बहता होगा। कर्तव्य नहीं होता ब्रह्मज्ञानी के जीवन में, प्रेम होता है। वह जो करता है प्रेम से करता है। जो उसके प्रेम में नहीं आता, नहीं करता। उसके लिए प्रेम ही एकमात्र कसौटी है। जो प्रेम पर खरा उतरता है वही सोना है और जो प्रेम पर खरा नहीं उतरता वह खोटा है। कर्तव्य सामाजिक व्यवस्था है। तुम्हें सिखाया जाता है: कर्तव्य का पालन करो। और जो कर्तव्य का पालन करेगा उसको आदर दिया जाता है, सम्मान दिया जाता है, पुरस्कार दिए जाते हैं। </p><p><span> </span><span> </span>यह प्रलोभन है। यह समाज की रिश्वत है कि तुम पद्म-विभूषण होओगे, कि भारत-रत्न बनोगे, नोबल पुरस्कार मिलेगा, कर्तव्य पूरा करो। सब कुछ स्वाहा कर दो कर्तव्य पर। अपनी बलि दे डालो कर्तव्य पर। देश के लिए बलि दो, परिवार के लिए बलि दो, धर्म के लिए बलि दो, जाति के लिए बलि दो। बस तुमसे अपेक्षा यही है कि बलि के बकरे हो जाओ! इस ईद में मरो कि उस ईद में मरो, कोई फिकर नहीं, मरो, मगर ईद में मरो! किसी न किसी ईद में कटो। किसी न किसी जिहाद में, धर्मयुद्ध में बस गर्दन तुम्हारी गिरे। और अगर धर्मयुद्ध में तुम्हारी गर्दन गिरे तो तुम्हारा बैकुंठ निश्चित है, बहिश्त निश्चित है। मुसलमान कहते हैं: जो जिहाद में मरेगा, जो धर्मयुद्ध में मरेगा, वह सीधा स्वर्ग जाता है। और वही दूसरे धर्म भी कहते हैं कि धर्म के लिए मरना स्वर्ग जाने का सुगमतम । उपाय है। इधर मरे नहीं कि उधर बैकुंठ के द्वार पर शहनाई बजी नहीं। और मर रहे हो तुम मार कर। मर रहे हो मारने में। उस हिंसा का कोई हिसाब नहीं। जो मुसलमान मर रहा है जिहाद में, वह मर किसलिए रहा है? क्योंकि मारने चला है। अनेकों को मारेगा तब मरेगा। वह अनेकों को मारा, उसका कोई हिसाब नहीं। वह जो अनेक मकान जला दिए, लोग जिंदा जला दिए, उसका कोई हिसाब नहीं।</p><p><b>- ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3710585605629656200.post-48927718516012235122023-08-12T07:40:00.000-07:002023-08-12T07:40:00.135-07:00हम कहने को धार्मिक हैं और हम जैसा अधार्मिक आचरण आज पृथ्वी पर कहीं भी खोजने से नहीं मिल सकता - ओशो <h1 style="text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_tSpz4Oc97MBWxurtp2UJ_lyD4C_qID39BnF6x3t05IMO93100EE2PCdiIsMlKPTgP3T0sN3xB2x-FolOfutIKTfzgLNo1AZ4UNl9opAvBpO1EyBkciMmL2G-z9NBATQYNaj0QCFmOmzTo9le69g3jkXpVANb9HDVSU7VvAVJyXQgFt4BVW36VtGa5A/s800/Osho%20In%20Greese%20(49).jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="We are religious to say and irreligious conduct like us cannot be found by searching anywhere on earth today - Osho" border="0" data-original-height="518" data-original-width="800" height="414" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg_tSpz4Oc97MBWxurtp2UJ_lyD4C_qID39BnF6x3t05IMO93100EE2PCdiIsMlKPTgP3T0sN3xB2x-FolOfutIKTfzgLNo1AZ4UNl9opAvBpO1EyBkciMmL2G-z9NBATQYNaj0QCFmOmzTo9le69g3jkXpVANb9HDVSU7VvAVJyXQgFt4BVW36VtGa5A/w640-h414/Osho%20In%20Greese%20(49).jpg" title="We are religious to say and irreligious conduct like us cannot be found by searching anywhere on earth today - Osho" width="640" /></a></div><br /> </h1><h1 style="text-align: center;">हम कहने को धार्मिक हैं और हम जैसा अधार्मिक आचरण आज पृथ्वी पर कहीं भी खोजने से नहीं मिल सकता - ओशो </h1><p>आदमी ने अपने को धोखा देने के लिए हजार तरह की तरकीबें ईजाद कर ली हैं। उन्हीं तरकीबों को हम धर्म मानते रहे हैं। और इसीलिए हमारे मुल्क में यह दुविधा खड़ी हो गई है कि हम कहने को धार्मिक हैं और हम जैसा अधार्मिक आचरण आज पृथ्वी पर कहीं भी खोजने से नहीं मिल सकता है। हमसे ज्यादा अनैतिक लोग, हमसे ज्यादा चरित्र में गिरे हुए लोग, हमसे ज्यादा ओछे, हमसे ज्यादा संकीर्ण, हमसे ज्यादा क्षुद्रता में जीने वाले लोग और कहीं मिलने कठिन हैं। और साथ ही हमें धार्मिक होने का भी सुख है कि हम धार्मिक हैं। ये दोनों बातें एक साथ चल रही हैं। और कोई यह कहने को नहीं है कि ये दोनों बातें एक साथ कैसे चल सकती?</p><p><span> </span><span> </span>यह ऐसा ही है जैसे किसी घर में लोगों को खयाल हो कि हजारों दीए जल रहे हैं, और घर अंधकार से भरा हो। और जो भी आदमी निकलता हो, दीवार से टकरा जाता हो, दरवाजे से टकरा जाता हो, और घर में पूरा अंधकार हो। हर आदमी टकराता हो, फिर भी घर के लोग यह विश्वास करते हों कि अंधेरा कहां है? दीए जल रहे हैं! और रोज हर आदमी टकरा कर गिरता हो, फिर भी घर के लोग मानते चले जाते हों कि दीए जल रहे हैं, रोशनी है, अंधेरा कहां है? हमारी हालत ऐसी ही कंट्राडिक्टरी, ऐसे विरोधाभास से भरी हुई है। </p><p><span> </span><span> </span>जीवन हमें रोज बताता है कि हम अधार्मिक हैं, और हमने जो तरकीबें ईजाद कर ली हैं, वे रोज हमें बताती हैं कि हम धार्मिक हैं। कि देखो, दुर्गोत्सव आ गया और सारा मुल्क धार्मिक हआ जा रहा है। कि देखो गणेशोत्सव आ गया, कि देखो महावीर का जन्म-दिन आ गया और सारा मुल्क मंदिरों की तरफ चला जा रहा है। पूजा चल रही है, प्रार्थना चल रही है। अगर इस सबको कोई आकाश से देखता होगा तो कहता होगा, कितने धार्मिक लोग हैं! और कोई हमारे भीतर जाकर देखे, कोई हमारे आचरण को देखे, कोई हमारे व्यक्तित्व को देखे, तो हैरान हो जाएगा। शायद मनुष्य-जाति के इतिहास में इतना धोखा पैदा करने में कोई कौम कभी सफल नहीं हो सकी थी, जिसमें हम सफल हो गए हैं। यह अदभुत बात है। यह कैसे संभव हो गया? इसका जिम्मा आप पर है, ऐसा मैं नहीं कहता हूं। इसका जिम्मा हमारे पूरे इतिहास पर है। यह आज की पीढ़ी ऐसी हो गई है, ऐसा मैं नहीं कहता हूं। आज तक हमने धर्मों के प्रति जो धारणा बनाई है उसमें बुनियादी भूल है और इसलिए हम बिना धार्मिक हुए धार्मिक होने के खयाल से भर गए हैं। </p><p><b> - ओशो </b></p>adminhttp://www.blogger.com/profile/13731958844423784418noreply@blogger.com0